हिंदी कविता



हिंदी कविताओं की प्रकाशित पहली किताब



शब्दों कि  उधेड़बुन
शब्दों के उधेड़बुन से आकार लेती पंक्तियाँ
देखी,पढ़ी और सुनी जाती हैं |
वे शब्द जो बचे रह जाते हैं - विचारों के भीतर ,
कई दिनों तक फुसफुसाते - बुदबुदाते से सुनाई दिया करते हैं स्वयं के भीतर |
उनकी फुसफुसाहट की तरफ ध्यान देने लगो अगर !
तो खुद का भीड़ में होकर भी - कही और खो जाने का शक होने लगता है ,खुद को ही !
पर फिर अगले ही पल में एहसास होता है - कि
अच्छा है , बाहर घने शोर और तेज़ी से बदलते चकाचौंध द्रश्यों के बीच -
होकर भी नहीं होते हुए ,उस बचे हुए को सुन पाना
जो अनगढ़ सा छूट गया था भीतर |
और जिसके छूटने से " मैं " बची रह गई -
जैसी मैं हूँ , अपने भीतर .........|
- प्रियंका वाघेला


गौरैय्याँ
जब झुंड में बतियाती है गौरैय्याँ
क्या कहती होगी ! चह - चह से ?
क्या सुबह की पहली किरण के बारे में
या संध्या में डुबकी लगाते सूरज पे -
टिकी होती होगी बातचीत !
या पता बताती होगी सखियों को,
उस आँगन का -
जहां आज भी फैलाए जाते है मुट्ठी भर धान
और मिट्टी के कुल्हड़ में जल -
कि चहकता रहे घर - आँगन |

नन्ही गौरेय्या को देख घर का नन्हा
जब किलकता है ख़ुशी से
माँ देखो चूं - चूं चिड़ियाँ !!!
कोई भी माँ नहीं ढूँढ पायी
नन्हे को इतनी ख़ुशी देने वाला कोई खिलौना |

घर - आँगन में है जबतक चहकती चिड़िया
और किलकता बचपन,
हम भविष्य के बारे में बतिया सकते हैं -
जैसे पेड़ों की शाखाओं पर बतियाती ये चिड़ियाँ |
- प्रियंका वाघेला
 हरा रंग
देखो हरे रंग का मौसम है
मुझे दिखाई दे रहा है
तुम्हारे भीतर अब भी हरा रंग बाकी है .
बचाए रखना इसे,
भूलना मत, गुड़िया के खेल में
अपने मन के सपने सजाना
बारिश के रंग भरे आकाश में,
जीवन के रंग देखना ,
आँगन में गौरय्या की तरह फुदकना
नन्हें फूलों वाली हरी घाँस पर जैसे
फूलो को पैरो के नीचे आ जाने से ,
बचाते हुए चलती थी तुम
जीवन भी ऐसा ही है
बहुत कुछ रौंदे जाने और मुरझाने से,
बचा बचा कर चलना है
तुम्हारे मन की भीगी धरती पर
नन्ही कोमल हरी घाँस है
इसलिये यह सफ़ेद फूल तुम्हारे लिये है . केवल तुम्हारे लिये
सपनों के पीछे चलती आई हो
जीवन की सच्चाई का चुल्हा कड़वा धुँआ और सख्त आँच देता है
सपनों को धूँगियाईआँखों से बहते आँसुओं में बहने मत देना
सपने थोड़े से बौराए ह्रदयों की हरी घाँस पर ही खिलते है
- प्रियंका वाघेला


लक्ष्मण रेखा
मेरी पीठ पर घना अँधकार था
और चेहरा सूरज की ओर
मै अँधकार के बारे मे बहुँत ज़्यादा नही सोच रही थी
और वह निष्फिक्र था यह सोचकर की -
मै कोई प्रतिवाद नही कर रही
रौशनी की किरणें मेरे अस्तित्व में उतर चुकीं थीं
और अँधकार अब भी अँधेरे में था
मै दहलीज़ पर थी और अब -
दोनों को एक साथ महसूस कर रही थी
मैंने तय किया कि,एक छोटे बच्चे की तरह
दहलीज़ को केवल एक रेखा मानते हुए -
उसपार जाकर देखूँ !
और मै रौशनी का हिस्सा हो गई
अँधेरा चुपचाप उसपार खड़ा देखता रहा
वह दहलीज़ अंधकार की लक्ष्मण रेखा थी -मेरी नही |
- प्रियंका


 खुशबू जैसा एक रंग
खुशबू जैसा एक रंग था,
देखना चाहो तो दृष्य से बाहर हो जाता
छूना चाहो तो पराई देह हो जाता
जानना चाहो तो पहेली हो जाता
ढूँढने जाओ तो कस्तूरी हो जाता

थककर बैठ गयी तो उतर आया आखों में
अब जहाँ भी देखती हूँ -रंग ही रंग है |
- प्रियंका


नदी
उसने सोचा वह नदी हो जाये
कल -कल कर बहती ,
मोड़ों पर ठिठके बिना राह बनाती जाये
कुछ पदचिन्हों से हताहत, किनारे खामोश रहे |

वे लौटे हैं , पितरों को एक नया पिण्ड दे
सोचते है कि मुक्त हुए अपने हिस्से का तर्पण दे किन्तु ,
नदी की कोख में है अब, मृत पिण्डों का डेरा
पोषित हो रहे निरंतर - आदम के कुंम्भ स्नान से
जन्म जन्मांतर के उतारे हुए पाप और कर्मकाण्ड से |

गर्भकाल पूरा होगा - जन्म लेगा वह
जिससे पीछा छुड़ा आये थे
अंशज होगा तुम्हारा ही
क्रमवार लौटेगा तुम तक |

जो मुक्त करती आ रही थी अभिषाप से
जननी होगी एक अभिषप्त मानव की
गंगा अब एक नाम है, नदी नही
कहते है स्वर्ग को लौट गई
जो दिखाई देती है वह – वह स्त्री है,
जो कभी नदी हो जाना चाहती थी |

नदी अपने उदगम की ओर नही लौटती है कभी
अपनी यात्रा पूर्ण कर सागर हो जाती है |
- प्रियंका  


मै
पैरों के नीचे हरी घांस का मैदान
ऊपर दूर तक फैला नीला आकाश
मैं अपने पैरों पर खड़ी नही होना चाहती
मै तय करना चाहती हूँ दूरी -
धरती से आकाश तक की

मै जन्मी ,बढ़ी और जननी हुई -
स्वयं के भीतर उपजे प्रश्नों के लिये भी उत्तरदायी हूँ
हारने का भय नही , जीतने की हड़बड़ाहट नही -
खुद को समेटकर ,धरती और आकाश के मध्य
इन्द्रधनुष सी दिखाई दे-
मै तय करना चाहती हूँ दूरी
स्वप्न से यथार्थ तक की |
- प्रियंका
 


धूप का रंग
धूप का रंग अब भी सुनहरा है
हरे पत्तों पर ओस की बूंदे सुस्ता रही है
मन छोटे बच्चे की तरह छूटकर भागा है
दूर तक फैला हरे घांस का मैदान प्रतीक्षारत है
क्या कुछ है ? जो घटने को है ?

उम्र के कुछ पड़ाव बचपन से दूर ले आये है हमें
वह हमारी स्मृति मे है आँगन में खेलता है
और हम किसी बड़ी समस्या पर विचार विमर्श कर रहे है

चलिए लौटें मिट्टी के आँगन में
आम बरगद ,पीपल और नीलगिरी के नीचे-
गपियाते हुये मीठे गन्ने की गंडेरी चबाए
धीमे -धीमे मुस्कुराना बहुत हुआ
पेट मै बल पड़ जाने तक हँसते जाए

क्यापता कल दुनियाँ जीत लेने के बाद
पलटकर देखें जब हम -
तो हाथों से छूटा हुआ यह अलमस्त एहसास
कामयाबी की किताब में एक रिक्त स्थान छोड़ जाए |
- प्रियंका 
 


मृत्यु

जीवन के रंगों के बहुत पास
एक रंग है रहस्य का मृत्यु
चलती है साथ साथ मिलाकर लयताल
कभी परखती है हमारे पदचिन्ह
तो कभी तौलती है सपनों को -

हमारा लड़खड़ाना शंकित हो जाना
लक्ष्य के करीब होकर भी थककर लौट आना
रौशनी की सारी खिड़कियाँ बंद कर
अंधकार को ही अपना सच बना लेना

नही देख पाती वह - रुका हुआ जीवन, अर्थहीन स्वप्न
मायूस तो होती है पर ,अगले ही पल
किसी कुशल माली की तरह
उखाड़ फेंकती है मुरझाया हुआ जीवन
पृथ्वी को लौटाने एक नवल अंकुरण

हम मृत्यु के आने से नही मरा करते
जीवन में सपनों पर समाप्त हो चुके विश्वाश से
मृत्यु की देहरी लाँघ जाते है |
-प्रियंका 
 


वक्त
वक्त हमारे आसपास से गुज़रता है
और हम बीतते जाते हैं |
वह अनुभवशाली रहेगा हमेशा ही
हम अपने जीवन की लम्बाई जितना ही -
जान पाते है उसे ,और वह बस है
शायद हमेशा से ही ?
कुछ किस्से सुना करते है अतीत के ,
दुस्साहस कि - सपनें भी पल रहें है भविष्य के
उद्गगम और अंत रहित वह जानता है -
कहानियाँ अनगिनत |
उससे हार - जीत नही ना ही शिकायत है कोई
एक नन्ही सी उड़ान है उस आकाश के लिये
जिसका अस्तित्व है अशेष
इस प्रयास में जिया गया जीवन और प्राप्त होने वाली मृत्यु
समय पर हमारे पदचिन्ह होंगे |
हमारे बीत जाने के बाद भी |

- प्रियंका
 


आज की दोपहर का बस्तर

जंगल- हरा , आदिम , विराट
महुआ के सफेद फूलों से सजता -
सुगंध से बौराया -
रस से भीगा -थिरकता जंगल ,
आज से पहले भी कई बार देखा है आँखों ने -
उसका बीहड़ सोंदर्य -
लेकिन हरबार अबूझा ही छूट जाता है वह
इसबार कुछ और भी था लेकिन,
जो द्रश्य में था पर अनचाहा और असह्य था
पेड़ों की कुछ कतारों के बाद -
धान की भरी बालियों के साथ -
खिलखिलाते हुए ठिठक पड़ी हंसी के पास -
पहले हुआ करते थे युद्ध के मैदानों में -
अब वर्दी बंदूक और पहरे है -
हरे आदिम निर्दोष जंगल के द्वार|
- प्रियंका
 

स्त्री
एक दिन घर की ओर जाने वाले रास्ते पर -
बहोत देर तक चलते हुए भी ,
घर दिखाई नही दिया
रास्ते से पूछा मैंने -
क्या मै गलत हूँ ?
या तुम गलत हो ?
रास्ते ने कहा - नही सबकुछ ठीक है
ना तुम ग़लत हो , ना मै
बस - तुम एक स्त्री हो..........
- प्रियंका
 




रिश्ता

हर रिश्ते की एक उम्र होती है
पहले अंकुरण फिर बढ़ने - खिलने और ,
फिर कई मोड़ -जिनसे गुजरते हुए कभी कभी हम ,
खुद को ही भूलने लगते है |
शायद उसका मुरझाना हम नही देख पाते-
जिसके खिलने को हमने जिया हो |
मुरझाये हुए फूल केवल -
धड़कते हुए रिश्ते की पुरानी डायरी में ही -
अच्छे लगते है -
और इस रिश्ते को हम ,
अपने जीवन से भी अधिक चाहते है |
-प्रियंका
 




जानवर

वह भूखे भेड़िये सा आप पर झपटता है पर ,
मिल जाने पर अपने हिस्से का मांस -
किसी पालतू की तरह शांत हो अपनी राह चल देता है -
जानवर है ,इंसान नही -
हमेशा भूखी आँखों और लपलपाती जिव्हा को लिये-
तहज़ीब के चोले में मृत आत्मा की दुर्गन्ध को छिपाता ,घिघियाता ,और -
मौका मिलते ही सबसे करीबी को -
मुँह फाड़ लील जाता |
पतानही किससे शापित है ?
पीठ पर मृत्यु को लादे हुए - मोक्ष की बाते है करता
मृत्यु तो अटल है सबकी ,इसकी भी लेकिन ,
कर्मकाण्डी है बड़ा -
शास्त्रों की लिखापढ़ी के हिसाब से ,
अपने हर पाप के लिये -एक पुण्य है गढ़ता |
फिर भी न जाने क्यों ? उसकी बजाय ,
भूखे भेड़िये के साथ होना अधिक सुरक्षित लगता -
भेड़िया मारेगा एक बार - तिलतिल कर बारम्बार नही -
जानवर है ,...........इंसान नही |
- प्रियंका
 


मेरा यथार्थ
कुछ कहना चाहती थी मै,
ह्रदय के अभाव में वे सुन ना सकेंगे
धरती के बाद सृजन मेरा अधिकार है ,
वे निरंतर मशीनों को गढ़ रहे है
उनके घर स्वर्ग से है और,
टूटते दरवाजों वाले घरो में जागती हुई नींद मेरा यथार्थ
जिसमे जंगली तेंदुए की तरह
घुस आती है आपदाए
कैसे कहूं मै ? जो कहना चाहती हूँ |
- प्रियंका
 




तेरी खुशबू वाला घर

मन कभी बारिश की बूंदों सा है तो कभी,
बहते आसुओं सा
कुछ देर को आकाश में उभरे इन्द्रधनुष सा या फिर ,
गहरे धंसे बारीक़ शूल सा
जीतेगा या हारेगा पता नही,
ढूंढ लेगा मगर तेरी खुशबू वाला घर
सीमाओं की रेखाए है ज़माने की बुनावट ,
तुझे महसूस करने के लिए
मेरा मन ही काफी है|

- प्रियंका
 


रंग, खुशबू और सपने

जीवन में बहुत थोड़े समय के लिये होते है,
रंग, खुशबू और सपने
जीवन के एक हिस्से के समय में,
यही हमारा जीवन होते है –
रंग , खुशबू और सपने |
जीवन के इस थोड़े से समय को –
पूरा जीवन कर लेना,
या – इस थोड़े से समय में –
पूरा जीवन जी लेना |
देखना ये हमारे नन्हों में बदल जायेंगे
जिनके साथ खिल जायेंगे रंग,
सितारों सी टिमटिमाएगी खुशबू और –
सपने सच होकर –
जीवन हो जायेंगे |

- प्रियंका
 


 रंग
रंग, रंगों में वह दिखाई देता है
रंग उसकी भाषा है
हर रंग की अपनी एक अलग भाषा है
भाषाओं के अर्थो में रंग,
छुपकर ताकते हुए से लगते हैं .
देखो इन रंगों की ओर,
लाल -
चटख आक्रामक
जीवन से भरा ,
उसे छूकर उसमे घुलता हुआ पीला
प्रेमातुर वसंत की  भाषा लिये  हुए
दोनों के मध्य सिंदूरी हुआ वह कोना
खिला हुआ है दहकते हुए अस्तित्व की तरह ,
अस्तित्व हमारे भीतर कुछ खिल जाने की प्रतीक्षा करता है |
- प्रियंका  

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