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फिल्म समीक्षा – कबीर सिंग

फिल्म समीक्षा – कबीर सिंग
यह फिल्म 2017 में आई तेलगू फिल्म अर्जुन रेड्डी का रीमेक है | दोनों फिल्मों के डायरेक्टर संदीप रेड्डी वांगा ही है |
फिल्म के शुरुवाती द्रश्यों में कबीर सिंग (शाहिद कपूर ) पूरी तरह से बर्बाद बंदा है | लेकिन उसके व्यक्तित्व का एक आश्चर्यजनक हिस्सा यह भी है कि वह एक कुशल डॉक्टर है और अपने काम के प्रति ईमानदार है ! कबीर हर बात में नंबर वन है – चाहे वह मेडिकल की पढ़ाई हो या खेल का मैदान लेकिन सिर्फ एक चीज़ है जिसपर उसका काबू नहीं है और वह है उसका गुस्सा | जिसकी वजह से उसे हर जगह नाकाम होना पड़ता है – कॉलेज का टॉपर होने के बावज़ूद वहाँ से निकाले जाने की नौबत आना, अपने प्यार को हासिल करने के बाद भी उसे खो देना, कमाल का सर्जन होने के बाद भी नशे की लत की वजह से प्रैक्टिस बंद हो जाना ........घर से निकाला जाना | कबीर एसा हीरो है जो अपनी बुरी आदतों से खुद को बर्बाद कर लेता है अपने अपनों को दुःख देता है उनसे दूर हो जाता है | वह प्रीती सिक्का (कियारा अडवानी ) से एकबार भी नहीं पूछता कि वो उससे प्यार करती है या नहीं ! बस उसे देखते ही कहता है ये मेरी “बंदी” है | हैरानी की बात तो ये है की दिल्ली के मेडिकल कॉलेज कैम्पस में, क्लासरूम से लेकर होस्टल तक कबीर अपनी बंदी के साथ जो चाहे वो करता है – और कोई उसे रोक नहीं पाता ! वही कबीर प्रीती की शादी रोकने में असमर्थ हो जाता है, उसे खो देने के गम में अपनी बुरी आदतों में बहता चला जाता है |
अभिनय – शाहिद ने अच्छा अभिनय किया है, वे किरदार में पूरी तरह उतरते है ....लेकिन कुछ द्रश्यों में बनावट भी लगती है जब अपनी दादी के मर जाने के बाद वो अपने पिता से बात करते है वह द्रश्य कमज़ोर है | कियारा का अभिनय ठीक – ठीक है | आदिल हुसैन बहुत कम समय समय के लिए परदे पर आते है लेकिन अपनी छाप छोड़ जाते है ! अर्जन बाजवा, सुरेश ओबेराय, और कामिनी कौशल का काम भी औसत है | हाँ कबीर के दोस्त के किरदार में – सोहम मजुमदार ने अच्छा अभिनय किया है |
फिल्म का निर्देशन, ट्रीटमेंट,साउंड औसत है | पटकथा में और काम हो सकता था, फिल्म के पहले हिस्से की एडिटिंग भी कमज़ोर है | संगीत धीरे से ज़हन में ठहरता है ....सुनते ही अच्छा लगने या जबान पे चढ़ने वाले गीत नहीं है |
फिल्म की कई घटनाओ में अतिश्योक्ति लगतीं है – कॉलेज कैम्पस वाली और हॉस्पिटल वाली जहाँ कबीर सिंग काम करता था | कई घटनाओं को और ख़ूबसूरती से बुना जा सकता था – जब कबीर और प्रीती लाँग डिस्टेंस रिलेशन में होते है | कबीर के घर और भाई की शादी के द्रश्य भी कमज़ोर है | दादी और कबीर के बीच बड़े – बड़े डॉयलॉग्स तो है लेकिन फिर भी द्रश्य असर नहीं छोड़ते है | फिल्म औसत सी है ....लेकिन शाहिद के लिए देखी जा सकती है |
निर्देशन – संदीप रेड्डी वांगा
अभिनय – शाहिद कपूर ,कियारा अडवानी, सुरेश ओबेरॉय, सोहम मजुमदार, अर्जन बाजवा आदिल हुसैन |

प्रियंका वाघेला
22 \6 \2019

“लैला” Leila (2019 ) season – 1 Netflix

“लैला” Leila (2019 ) season – 1 Netflix
पत्रकार एवँ उपन्यासकार “प्रयाग अकबर” के उपन्यास पर आधारित |
समय है 2047 ! आर्यावर्त देश है जिसके प्रधान है - डॉ जोशी जो सभी देशवाशियों के श्रद्धेय है, इनका उद्देश्य है – अलगाव से शान्ति ! शहर गगनचुंबी दीवारों से अलग – अलग सैक्टर्स में बंटे हुए है | हर सैक्टर की एक कम्यूनिटी है जहाँ लोग स्वतंत्र है अपनी मान्यताओं को मानने के लिए | लेकिन शुद्ध हवा और पानी अब विलासिता है क्यूँकि लोगो के पास साफ़ पानी और शुद्ध हवा नहीं है ...ख़रीदनी पड़ती है ! गरीबों की बस्ती दीवार के उस पार है – जहाँ कूड़े के ढेर है जो लगातार धुँआ उगल रहे है यहाँ तक की पानी भी काला बरसता है |
कहानी शुरू होती है – स्विमिंग पूल के द्रश्य से जिसमें पति – पत्नी अपनी छोटी सी बच्ची लैला के साथ है | जहाँ लोगो के पास पीने को पानी नहीं है वहाँ इनके पास स्विमिंग पूल है जाहिर सी बात है यह एक रईस और खुशहाल परिवार है रहन सहन काफी आधुनिक है आखिर यह 2047 है ! तकनीकी स्तर काफी उम्दा हो चुका है | अचानक इस परिवार पर हमला होता है पति- रिज़वान (राहुल खन्ना ) मारा जाता है | पत्नी शालिनी ( हुमा कुरैशी ) को पकड़कर वनिता कल्याण केंद्र में डाल दिया जाता है | यहीं से सबकुछ बदल जाता है ! शालिनी का जीवन उसकी आज़ादी,परिवार सबकुछ उससे छीन लिया जाता है...अब वह कल्याण केंद्र में आदर्श नारी बनने की शिक्षा ले रही है शिक्षा देने वाले है आर्यावर्त के महान लोग....क्या है यह आर्यावर्त ? कैसे है यहाँ के लोग ? शालिनी के साथ क्या होता है ! उसके जैसी अनेक स्त्रियाँ जो सुधार केंद्र में है या दंड स्वरूप श्रम केंद्र में, कैसा होगा उन सब का जीवन ...क्या शालिनी निकल पाएगी आर्यावर्त के महान पंजों से और ढूँढ पायेगी अपनी बेटी लैला को ? काफ़ी रोचक है इस सीज़न के सारे एपिसोड्स ! जरूर देखिये नेटफ्लिक्स पर |
इन एपिसोड्स को देखते हुए आपको कई विदेशी साइंस फिक्शन फिल्मों की याद आएगी .....अभिनय की बात करे तो यह कमाल की बात है कि सारे अभिनेताओं ने बढ़िया काम किया है ! मुख्य किरदार में हुमा कुरैशी जिस तरह अपने चरित्र में उतरती है काबिले तारीफ़ है !! उनकी बॉडी लेंग्वेज, एक्सप्रेशन कमाल है | सिद्धार्थ जो की आर्यावर्त का श्रम केंद्र संभालता है आपको धीरे-धीरे आर्यवर्त की पर्तों में ले जाता है अच्छा अभिनय व सधे हुए हाव – भाव | अन्य अभिनेताओं में – सीमा बिस्वास , आरिफ जकारिया, राहुल खन्ना, जगजीत संधू भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते है अभिनय अच्छा है |
निर्देशन वाकई उम्दा किया गया हैं ! द्रश्य में दिखाई गयी परिस्थितियों से आप सहमत होते हो | मुख्य किरदार शालिनी जब अपने अतीत में झांकती है तो एक द्रश्य इतनी सहजता से दुसरे में शिफ्ट होता है की आप उसे देखकर आनंदित होते है, कही भी तारतम्य टूटता नही है !! हम खुद भी अपने आपको इस दुनिया में पाते है ...मन आशंका से भर उठता है कि - कही सच में ऐसा ही भविष्य में हमारे साथ भी तो नहीं हो जाएगा ? अचानक ही कीमत पता चलनें लगती है उन सबकी जो कुछ भी हमारे पास आज है |
दीपा मेहता, शंकर रमन और पवन कुमार द्वारा निर्देशित यह सीरीज़ आपको भविष्य में ले जाती है ! हम धीरे - धीरे जिस प्राकृतिक एवँ सामजिक आपदा की ओर बढ़ रहे है - इसमें हमे उसकी एक छोटी सी झलक दिखलाई गयी है | हमारा पर्यावरण हमारे विकास की कीमतें चुका रहा है लेकिन इसकी भी एक सीमा है .....आकाश से बरसता काला इतिहास भविष्य को मलिन तो करेगा ही | लेकिन वैचारिक संकीर्णता का क्या ? धर्म के नाम पर बंटते इंसानों का क्या ? साँस लेना दूभर होता है प्रदूषित हवा और दिमागों दोनों के बीच | आर्यावर्त में निष्ठुरता है मिश्रित बच्चों के लिए, दूश के लिए,कला और कलाकारों के लिए, प्रेम को जाति - धर्म से ऊपर माननेवालों के लिए | आशा करती हूँ इस क्षेत्र में मेरा देश मानवता को ऊपर रखने के अपने हजारों साल पुराने इतिहास को बचाए रखेगा कला संस्कृति और प्रेम को बचाए रखेगा, मेरा देश आर्यावर्त जैसा कभी नहीं होगा - यहाँ ताजमहल कभी ध्वस्त नहीं होगा |
पटकथा अच्छी है, साउंड में भी स्तरीय काम हुआ है | स्क्रीनप्ले बढ़िया है लेकिन कहीं – कहीं थोड़े और डीटेल की जरूरत महसूस होती है | अगर आप शुरुवात में दिखाई गयी कुछ जानकारियों को पढ़ने से चूक जायेंगे तो काफ़ी देर तक समझ नहीं आएगा की हो क्या रहा है ? यह किस तरह की जगह है ! अच्छी कहानी है .....बस ये हमारी कहानी न बन जाए, देखिएगा जरूर |
प्रियंका वाघेला
18 \6\2019
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फिल्म समीक्षा – भारत

फिल्म समीक्षा – भारत
यह फिल्म 1947 में हुए भारत – पाकिस्तान बटवारे की प्रष्ठभूमि से निकलकर 2010 तक का सफ़र तय करती है | जिसमें 8 साल का एक बच्चा जिसका नाम भारत है, बिगड़े हुए हालातों की वजह से अपने परिवार के साथ हिन्दुस्तान आते समय बहन से बिछड़ जाता है, पिता बहन को ढूँढने जाते समय भारत से वादा लेते है कि – वह अपनी माँ और भाई बहन का ध्यान रखेगा | भारत पिता से किया वादा पूरी शिद्दत से निभाता है और अपने पिता व खोई हुई बहन गुड़िया के हिन्दुस्तान लौट आने का इंतजार करता है ......सत्तर साल की उम्र तक !
फिल्म एक 8 साल के बच्चे की जीवन यात्रा है जिसने कई ऐतेहासिक बदलाव देखे है, हिंसा, आर्थिक, सामाजिक,एवँ भावनात्मक संघर्ष को झेला है और साथ ही यह बदलाव और संघर्ष देखा है उसके "देश" ने यह बात केवल फिल्म के पोस्टर पर है फिल्म में केवल सलमान है, देश कही नहीं है | फिल्म अपनी कहानी और भावनात्मक मुद्दों की वजह से बेहतरीन बन सकती थी ! ऐतेहासिक, सांस्कृतिक एवँ भावनात्मक पृष्ठभूमि पर हमारा देश हमेशा से समृद्ध रहा है | बेशकीमती कहानियों का पिटारा है यह देश .....लेकिन पता नहीं क्यूँ ...ज्यादातर फ़िल्में संसाधनों के दुरूपयोग की मिसालें बनती जा रही है !! फिल्म इंडस्ट्री के हर क्षेत्र में बेमिसाल हुनरमंद व्यक्तियों की भरमार है फिर चाहे वह अभिनेता हों या - निर्देशक, लेखक ,एडिटर, संगीतकार ,गीतकार, सिनेमेटोग्राफर, कोरियोग्राफर, टेक्नीशियन ...... लेकिन जब फिल्म किसी एक व्यक्ति को ही महिमामंडित करने के लिए बनाई जाती है तो बाकी प्रतिभाओं का दुरूपयोग स्वयं ही हो जाता है | यहाँ किसी एक व्यक्ति का स्टारडम बरगद की तरह अपने साए में किसी को पनपने नहीं देता है | दर्शको के एक ख़ास वर्ग की पसंद बन जाने के बाद अभिनेता अपनी उस छवि से आजीवन बाहर नहीं निकलना चाहता जो सालों पहले उसनें परदे पर निभाए थे, लेकिन ऐसा करके जाने –अंजाने वह अपने आपको ही निखारना, तराशना छोड़ देता है ....युवा दिखाई देते रहने के लिए जैसे अपने शरीर का ध्यान रखना जरूरी है वहीँ अभिनय की धार भी आपसे अलग - अलग आयाम मांगती है , समय का बदलना जो नहीं सुन पाता है – वह समय के उसी हिस्से में रुका रह जाता है | जो सुन लेते है – वे दिग्गजों में शामिल होते है !
फिल्म में सत्तर साल की उम्र के सलमान और कटरीना कहीं से उम्र दराज़ नहीं लगते, सिवाय बालों में थोड़ी सी सफेदी के, उन पर उम्र का कोई असर नहीं है ! फिल्म में घटनाएं सलमान के लिए बुनी गयी है वे जहाँ भी जाते है सब ठीक कर देते है | जाते हैं मैकेनिक बनकर दिखते हैं अफसर ! सत्तर की उम्र में राशन की दुकान पर बैठते जरूर हैं लेकिन अकेले चार – छह बाइक में आये गुंडों को ठोक डालते हैं | फिल्म में भारत के शादी से इनकार कर देने के बाद भी कटरीना उनके लिए सबकुछ करती है - कभी अपनी नौकरी छोड़कर सलमान की दुकान संभालती है तो कभी - नौकरी की सहायता से ही उनकी खोई हुयी बहन को ढूँढ निकालती है ! फिल्म देखते हुए आप मैडम सर ( कटरीना ) जैसी खूबसूरत सपोर्टिव प्रेमिका की ख्वाहिश जरूर करेंगे जो रहे लिव इन में और निभाए पत्नी से ज्यादा |
कहानी की जरूरत के हिसाब से 1947 से 2010 तक पात्रों की जीवन शैली व सेट में कुछ बदलाव तो दिखते है लेकिन जब बात गानों की आती है तो वे आधुनिक लगते है | डायरेक्टर का संघर्ष मैं समझ सकती हूँ कि उन्हें सलमान की स्टार छवि और कहानी की डिमांड के बीच कितना अधिक जूझना पड़ा होगा !
अभिनय की बात करे तो बहुत से अच्छे अभिनेताओं - कुमुद मिश्रा, सोनाली कुलकर्णी को फिल्म की पटकथा में उचित स्थान ही नहीं मिला है | हम इंतज़ार ही करते रह जाते है कि उनकी बारी आएगी लेकिन फिल्म सलमान, कटरीना और सुनील ग्रोवर के चारों ओर ही घूमती रहती है- दिशा पाटनी केवल फिल्म के सर्कस वाले हिस्से को ग्लैमराईज़ करने के लिए थी ! सुनील ग्रोवर कपिल के शो में ज्यादा हंसा लेते है, हास्य भी ठीक से बुना नहीं गया जिसका सबसे फूहड़ नमूना जहाज पर आये लुटेरों के साथ जबरदस्ती की ठूंसी हुयी कॉमेडी और नाच – गाना है | जैकी श्रॉफ ने अपने किरदार को अच्छा निभाया है, कटरीना ने हरबार की तरह अपने आपको जादुई रूप वाली कमाल की नर्तकी साबित किया है ! और सलमान फिल्म में भी सलमान ही है | हाँ बाल कलाकारों में दोनों लड़को ने अच्छा अभिनय किया है |
निर्देशन और पटकथा दोनों कमज़ोर है इसलिए मैं एडिटिंग को दोष नहीं दूँगी सिर्फ अच्छी एडिटिंग से चमत्कार नहीं किया जा सकता | कई बार कमज़ोर या साधारण कहानी भी उम्दा निर्देशन और ट्रीटमेंट की वजह से अच्छी निकल आती है यहाँ इसका ठीक उल्टा है | संगीत मसाला फिल्मों के जैसा है – 1964 में स्लो मोशन जैसे गाने की कल्पना ही अद्भुत है ! इश्के दी चाशनी सुरीला गाना है लेकिन कपड़ों को देखकर लगता है जैसे 1974 में 2010 के डिज़ाइनर पहुँच गए हों ! साथ ही सलमान के हाथों में चमकती एल ई डी लाइट की झालर वो भी 1974 में ? कमाल है !!
भारत के दर्शक भी अपने स्टार्स से खास तरह के रोल और सिनेमा की ही मांग करते है, इस वजह से बड़े स्टार की भी यह मजबूरी हो जाती है उसी दायरे में सीमित रहना ....सलमान के साथ भी कुछ ऐसी ही बात हो रही है कि उनका स्टारडम उनको बहुआयामी होने से रोक रहा है | बहरहाल यह फिल्म केवल सलमान खान के फैन्स के लिए है | टिकट खरीदनें से पहले विवेक से काम ले|
निर्देशक - अली अब्बास ज़फर
अभिनय - सलमान खान, कटरीना कैफ, जैकी श्रॉफ ,सुनील ग्रोवर, दिशा पाटनी .
प्रियंका वाघेला
7\6\2019
#फिल्मसमीक्षा #filmreview #Bharat

फिल्म समीक्षा - चॉपस्टिक्स

फिल्म समीक्षा - चॉपस्टिक्स
ऐ दिल है मुश्किल जीना यहाँ ....ज़रा हटके, ज़रा बचके ये है मुंबई मेरी जान ! यह फिल्म मुंबई के तीन अलग –अलग हिस्सों – कार्पोरेट, स्लम, और एक सनकी गैंगस्टर ( विजय राज ) के चारों तरफ घूमती है | इन सबके बीच फँसी हुई है “निरमा” ( मिथिला पालकर ) अपने भोले भाले - मन के साथ | निरमा कार्पोरेट सेक्टर में काम करती है उसकी एक खूबी है कि वह चाइनीज़ भाषा जानती है,लेकिन आत्मविश्वाश की कमी और अपने देसीपन की वजह से वह आगे नहीं आ पाती है| निरमा अपने लिए नई कार खरीदती है और अपने भोलेपन की वजह से पहले ही दिन उसे खो देती है - एक ठग के हाथों ! कार ढूंढने की कोशिशों के बीच वह एक रहस्यमय चोर – “आर्टिस्ट” (अभय देओल ) से मिलती है, आर्टिस्ट निरमा की मदद करता है सिर्फ कार ढूँढने में ही नहीं – बल्कि निरमा के ट्रांसफार्मेशन में भी |
मुंबई शहर सपनों का शहर है ! देश के हर कोनें से हजारों सपने हर रोज़ इस समंदर किनारे बसे शहर में चले आते है – जितने रंग - बिरंगे लोग यहाँ है उतने शायद ही कहीं और हो .....दुनिया का सबसे बड़ा स्लम | मायावी फिल्म इंडस्ट्री | आकाश से बाते करती इमारतों में मंझोले कस्बों और गाँवों से आये लोग – यही एक दिन इस मायानगरी में सितारों से चमकते है, मुंबई है ही ऐसी जो इसे स्वीकारता है यह उसे अपना लेती है |
अभय देओल ने इस फिल्म में बेहतरीन अभिनय किया है ! उनके भाव, बॉडी लेंग्वेज कमाल के है एक दो जगह डायलॉग्स समझने में दिक्कत होती है .....शायद यह साउंड रिकार्डिंग की भी कोई तकनीकी कमज़ोरी हो सकती है | निरमा यानि मिथिला पालकर अपने भोलेपन के अभिनय से दिल में उतर जाती है! मंझोले शहरों से आने वाली और अकेली महानगरों में संघर्ष कर रही लड़कियां उनमें अपने आपको पाएंगी | विजय राज एक सनकी गैंग्स्टर के किरदार में काफी जंचें है हर फिल्म के साथ उनकी प्रतिभा अपने परिष्कृत रूप में सामने आ रही है | कलाकारों का उनके किरदारों के लिए चयन सटीक है सभी ने अच्छा अभिनय किया है |
फिल्म के निर्देशक है सचिन यार्डी, लेखन किया है – सचिन यार्डी एवँ राहुल अवाते ( स्क्रीनप्ले ) ने | इस फिल्म में स्क्रीनप्ले और इसके ट्रीटमेंट ने बड़ी भूमिका निभाई है ! क्यूँकि कहानी औसत सी है फिर भी अच्छे निर्देशन - स्क्रीनप्ले और बेहतरीन अभिनय ने इसे लाजवाब बना दिया है |
फिल्म की शुरुवात में वेलकम टू धारावी रैप सॉंग अच्छा है जिसे 7 BantaiZ band ने गाया है | निखिल डिसूजा का गाया और मुकेश परमार का कम्पोज़ किया गीत – दिल उड़ा पतंग सा आपको बस अभी – अभी थमी बारिश के बाद भीगी सड़क पर ले जाएगा जहाँ रुक –रुक कर पत्तों से कुछ बूंदे अभी भी टपक रही है और आप उन्हें देखते रहनें के आलावा कुछ और नहीं सोचना चाहेंगे ....कुछ भी नहीं ! निखिल आपकी आवाज़ अद्भुत है !! एक चमकीले भविष्य के लिए शुभकामनाएँ |

फिल्म में एक ही बात खटकती है – अभिनेत्री का नाम “निरमा” रखना ! नाम को लेकर यह प्रयोग न्यूटन फिल्म से उधार लिया लगता है जो फिल्म की मौलिकता को कम करता है |
निरमा को चॉपस्टिक्स से खाना नहीं आता है .....फिल्म के अंत में वह चॉपस्टिक्स हटा देती है और अपनी झिझक भी | हम सभी के जीवन में भी कोई ना कोई चॉपस्टिक्स है जो परेशान किये रहती है हर समय ......' हटा दीजिये '.... चॉपस्टिक्स आपसे यही कहती है .....फिल्म अच्छी है |
-प्रियंका वाघेला
3\6\2019
#filmreview #CHOPSTICKS Chopsticks Netflix Movie - 2019Netflix #mithilapalkar #sachinyardi Nikhil Abhay Deol #vijayraj #ParaggMehta #फिल्मसमीक्षा

फिल्म समीक्षा – India's Most Wanted

फिल्म समीक्षा – India's Most Wanted “चमत्कारिक रूप से बुरी फिल्म”
यह फिल्म सत्य घटना पर आधारित है – इंटेलिजेंस और पुलिस के कुछ लोग भारत में हो रहे सीरियल बम ब्लास्ट के मास्टर माइंड को पकड़ने नेपाल जाते है बिना किसी सरकारी सुविधा के | हथियार, स्थानीय पुलिस की मदद, पैसा कुछ भी नहीं ! साथ है तो केवल अपने देश के लिए कुछ कर गुजरनें का जज़्बा | कहानी अच्छी थी सत्य घटना पर आधारित होने की वजह से बेहतरीन काम हो सकता था ......लेकिन कुछ समय से बॉलीवुड में बनने वाली फिल्मों और उनमें किये जाने वाले अभिनय को देखकर लगने लगा है कि ये - पब्लिक को कुछ सोचनें समझने लायक समझते भी है या नही ? दस में से एक आध फिल्म ही स्तरीय, मनोरंजक और सिनेमाघरों में आने लायक होती है बाकी तो लगता है पॉपकॉर्न बेचनें वालों के लिए सिनेमाघर में लगाई जाती है ....अब इतनी मंहगी टिकटें लेकर आधे बीच से उठकर आया भी नहीं जाता और बैठा भी नहीं जाता |
डायरेक्टर राज कुमार गुप्ता नें बहुत ही रोचक विषय को कमाल की जड़ता से रचा है ! ये उनके काम में स्वतः ही आ गयी या अर्जुन कपूर से उनमें स्थानांतरित हुई कहना मुश्किल है !! फिल्म में पार्श्व धुनों से कई बार ऐसा माहौल बनता भी है कि अब कुछ रोमांचक घटित होगा .....लेकिन निराशा ही हाथ लगती है, अर्जुन कपूर इस फिल्म में फेविकोल के मजबूत जोड़ के साथ आये थे फिर चाहे वो बॉडी लेंग्वेज हो या अभिनय सबकुछ जड़ व अभिव्यक्तिशून्य था | फिल्म की एक और बड़ी कमज़ोरी – मोस्टवांटेड ( घोस्ट ) अपराधी यूसुफ़ के, बीच – बीच में कुछ डॉयलाग्स सुनाये और केवल आँखें दिखाई और जब आखिर में वह सामने आया तो ठीक से अपना बचाव भी नहीं कर पा रहा था ! जैसे अर्जुन कपूर की सुविधा के लिए ही वह ना तो कही भागा ना ठीक से लड़ा, आखिर में दोनों ने एक – एक लाइनें बोली – दोनों के किरदार अपनी –अपनी जगह नकारात्मकता और सकारात्मकता के शीर्ष पे थे लेकिन उनके संवाद से लगा दोनों ही रेस में दौड़ना ही नहीं चाहते थे जैसे जबरन खड़ा कर दिया हो किसी (राज कुमार गुप्ता ) ने | जिस ISI ने अपनें आतंक से पूरी दुनिया को हलाकान कर रक्खा है उन्हें इतना कमज़ोर पहली बार किसी फिल्म में देखा, ब्लास्ट की घटनाओं को उसकी विभीषिका दिखाने की बजाय आतंकी युसूफ की निगाहों पर ही खत्म कर दिया गया !! द्रश्य में गढ़े गये भाव कुनकुने ही रह जाते है, अंत देखकर लगता है इतने प्यारे आतंकी को तो लेने जाने की भी जरूरत नहीं थी “कुरियर” वाला ही छोड़ जाता | एडिटिंग काफी कमज़ोर है एवँ फिल्म के गीत और बोलो नें भी बुरी तरह निराश किया !! अमित त्रिवेदी यह आपका काम नहीं लगता !! फिल्म के सहायक कलाकारों- राजेश शर्मा एवँ अन्य ने अच्छा अभिनय किया है ! अच्छी कहानी और उपलब्ध तमाम संसाधनों का दुरूपयोग है यह फिल्म |

प्रियंका वाघेला
27 \5 \2019
फिल्म समीक्षा – Indias Most Wanted “चमत्कारिक रूप से बुरी फिल्म”
डायरेक्टर – राज कुमार गुप्ता
अभिनय – अर्जुन कपूर, राजेश शर्मा, देवेन्द्र मिश्रा, आसिफ़ खान .
#filmreview #फिल्मसमीक्षा#IndiasMostWantedIndia's Most Wanted

The last trip to the seaside

कांस फिल्म महोत्सव 2019 ( क्रिटिक्स वीक )
में प्रदर्शित शॉर्ट फिल्म
फिल्म समीक्षा
The last trip to the seaside, Director – Adi Voicu, द लास्ट ट्रिप टू द सीसाइड,
एक ट्रेन जो रोमानिया के बचे कम्युनिस्ट अवशेषों की धूल उड़ते भाग रही है | ट्रेन के एक कूपे में छह यात्री, एक जोड़ा जिसमें स्त्री के हाथ में मेट्रोमार्क्सिज्म किताब है और वे गंभीर चर्चा करते हुए ट्रेन के बाहर जलते खेत की तस्वीर ले रहे है ! दो बूढ़ी पुरातन औरतें अपनी – अपनी बिमारियों की चर्चा में | एक व्यक्ति खिड़की का काँच खोलना चाहता है यह व्यक्ति टर्किश है और ट्रेन के बाकि मुसाफिरों के बीच एक मुस्लिम विदेशी !
उनके बीच कुछ घटनाएँ घटती है संदेहवश कुछ यात्री अपना संयम खो देते है ! जिससे बाकी की यात्रा निराशाजनक रूप से ख़राब हो जाती है |
इस व्यक्ति पर उठे संदेह से पूरा माहौल बदल जाता है,कूपे में बैठे लोग भाग जाते है ......फिल्म हमारे दिलो – दिमाग़ पर छाये इस्लामिक फोबिया की बात करती है –कि कैसे आतंकी घटनाओं ने हमें पूर्वाग्रहों से ग्रसित कर दिया है | आज हम किसी के बारे में ठीक से जाने बगैर ही उसकी भाषा और धर्म से अपनी राय कायम कर लेते है ! हम खुद केवल अपने बारे में ही सोचते है और दूसरों की तकलीफ के प्रति अमानवीय ढंग से निष्ठुर हो जाते है !!
बहोत ही साधारण घटनाओं और बात – चीत से डायरेक्टर ने कुछ मिनटों में इतने नाजुक विषय को बेहतरीन तरीके से बुना है की – इंसान उसकी मानसिकता, भय, स्वार्थ, नफरत सबकुछ सामने आ जाता है ! पूरी फिल्म में सबसे सह्रदय,मददगार और सभ्य वहरोमानिया में आया हुआ टर्किश मुस्लिम व्यक्ति ही निकलता है | मैं फिल्म की कहानी को विस्तार से नहीं लिखना चाहती हूँ , पर यह फिल्म लाज़वाब है, जब भी मौक़ा मिले ज़रूर देखिये |
प्रियंका वाघेला 25/05/2019
Semaine de la Critique - Cannes Cannes Film Festival #फिल्मसमीक्षा #filmreview

विलेज रॉकस्टार्स -फ़िल्म समीक्षा

VILLAGE ROCKSTARS
विलेज रॉकस्टार्स -फ़िल्म समीक्षा
रीमा दास असम से है अपने करियर की शुरुवात इन्होनें अभिनय से की आज एक सफल डायरेक्टर के रूप में जानी जातीं है | इनकी पहली फिल्म है “मैन विथ द बायनाकुलर्स”, “विलेज रॉकस्टार्स ” दूसरी फिल्म है जिसे नेशनल अवार्ड के साथ – साथ कई स्तरीय नेशनल , इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल्स में नॉमिनेशंस व अवार्ड्स मिले है यह फिल्म भारत सरकार की ओर से ऑस्कर के लिए भी भेजी गयी ! रीमा दास का काम अपने अवार्ड्स के आलावा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस फिल्म को उन्होंने जितने सीमित संसाधनों में बनाया है, उसमें फ़ीचर फिल्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती है ! वे इस फिल्म की डायरेक्टर, प्रोड्यूसर,एडिटर,राइटर सिनेमेटोग्राफर,कॉस्टयूम डिज़ाइनर,और “कैमरा वुमन” भी है| आज रीमा दास एक नाम नहीं प्रेरणा है उन सभी के लिए जो फिल्म जैसी कठिन विधा में संसाधनों की कमी की वजह से काम नहीं कर पाते है या उन्हें यह यकीन दिलाया गया है कि फिल्म बनाना हुनर और जस्बे से ज्यादा बजट मिलनें पर निर्भर करता है इसलिए आज इंडस्ट्री में वही फिल्म बना पाते है जिनके पास बड़ा पैसा है | इस तरह की धारणा को ध्वस्त करते हुए रीमा दास ने ना सिर्फ फिल्म बनाई बल्कि अपने हुनर और जूनून के दम पर उसे दुनिया भर में पहचान दिलाने वाला मील का पत्थर साबित किया !खासकर एक स्त्री का उन विधाओं में मंझा हुआ काम कर जाना जो आज भी काफी हद तक पुरुषों के लिए आसान समझे जाते है – अकेले यह कर दिखाना वास्तव में कठिन रहा होगा, मैं यह इसलिए भी कह सकती हूँ क्योंकि मैं खुद एक सीमित संसाधनों वाली फ़िल्म का हिस्सा रही हूँ और तमाम तरह की परेशानियों के बीच हमने फिल्म बनाई है | रीमा आपको देखकर अच्छा काम करनें की प्रेरणा और हिम्मत दोनों मिलती है आपके काम की जितनी भी तारीफ़ की जाय कम है |
रीमा दास ने यह फिल्म समर्पित की है – अपने गाँव को और उनमें रहनें वाले अपनों को ....फिल्म में धुनु का किरदार निभाया है रीमा दास की चचेरी बहन – भनिता दास नें,बाकी सारे अभिनेता भी उनके परिवार या गाँव के ही है इनमें से कोई भी प्रोफेशनल एक्टर नहीं है, बावज़ूद इसके अभिनय मंझे हुए कलाकारों जैसा है! फिल्म में जैसा दिखाया गया है वे सभी उस तरह का जीवन देखनें के आदि है शायद इसलिए भी वे अपने किरदारों के साथ सहज थे लेकिन कैमरे के सामनें कुछ इस तरह से होना की उन्हें कैमरे का पता ही नहीं है – मुश्किल काम है |
कहानी दस साल की धुनु की है जो अपने दोस्तों के साथ मिलकर रॉक बैंड बनाती है, घर में इतनी गरीबी है की कभी – कभी सिर्फ भात को नमक के साथ खाना पड़ता है .....कैसा हो सकता है इन परिस्थितियों में रह रहे बच्चों का बैंड ? थर्माकोल के टुकड़े से गिटार और लकड़ी के फट्टे से बने बाकी साजो सामान, बच्चे उनको ही रंगीन चमकीली पन्नियों से सजाकर खुश है और झूम रहे है ! धुनु अपने दोस्तों के बीच अकेली लड़की है अपने भाई और उसके दोस्तों के साथ ही स्कूल जाती है और खेला करती है, पेड़ पर चढ़ना और अपनी प्यारी बकरी मुनु के साथ खेतों में घूमते रहना उसके पसंदीदा काम है| धुनु के पिता बाढ़ की भेंट चढ़ गये थे ....माँ धुनु और उसके भाई के लिए दिनरात मेहनत किया करती है, कहानी में कोई अनोखी बात नहीं कही गयी है लेकिन धुनु की माँ के किरदार में जो आत्मविश्वाश दिखाई देता है वो अनोखा है ! धुनु माँ से पूछती है – बाढ़ हर बार फसल ख़राब कर जाती है माँ तुम हर बार क्यों उगाती हो ? माँ जवाब देती है कर्म ही हमारा धर्म है ...यही हमारे हाथ में है | धुनु अपनी माँ से पूछती है की क्या वह उसके लिए सच का गिटार ले सकती है ? वह कहीं लिखा हुआ पढ़ती है की यदि हम अच्छा सोचे और दिल से किसी चीज़ को चाहे तो वह हमें ज़रूर मिलती है धुनु इस बात पर यकीन करने लगती है की उसे भी गिटार ज़रूर मिलेगा..........माँ धुनु के लिए लोगो से लड़ती है उसे गलत करनें पर मारती भी है,पैसों के लिए दूसरो के घर जाकर काम करनें से रोकती है बाढ़ के बावज़ूद रास्ता बदल कर स्कूल जाने को कहती है ...कठिन परिस्थियों और प्राक्रतिक आपदाओं के बावज़ूद धुनु की माँ दृढ़ता और ममता दोनों की मिसाल है |
फ़िल्म के द्रश्य रंगों की कविताएँ कहते से लगते है ! प्रकृति का सरल सौन्दर्य द्रश्य की बजाय पेंटिंग्स की तरह लगने लगता है | कैमरा बहोत ही इत्मीनान से दृश्यों को देखता है अभिनय कैमरे के लिए हो भी नहीं रहा है – यहाँ वह केवल एक दर्शक की तरह उपस्थित है और जहाँ जैसी जगह मिलती है कैमरा इन घटनाओं के बीच घुस –घास के दृष्य बटोर लाता है |
अभिनय सभी का आश्चर्यजनक रूप से सहज है, जिनमें धुनु (अभंती दास )और उसकी माँ (बसंती दास ) ने तारीफे काबिल अभिनय किया है |रीमा दास अपने हर काम में फिल्म के एक संवाद की तरह ही कर्म को धर्म मानकर चलीं है जिसका असर फिल्म और उसकी उपलब्धियों में साफ़ नज़र आता है | रीमा दास और उनकी पूरी टीम को बधाई ! रीमा की तीसरी फिल्म बुलबुल कैन सिंग है जिसे देखने का मुझे बेसब्री से इंतज़ार है | फ़िल्म ज़रूर देखिये और ज़रा इत्मीनान से देखिएगा ......
डायरेक्टर – रीमा दास | अभिनय – भनिता दास ,बसंती दास.
- प्रियंका वाघेला
22 \5 \2019
Village Rockstars Rima Das #filmreview #फिल्मसमीक्ष Amazon Prime Video New On Amazon Prime UK

फिल्म समीक्षा – फोटोग्राफ

FILM REVIEW - PHOTOGRAPH
फिल्म समीक्षा – फोटोग्राफ
“सालों बाद जब आप ये फोटो देखेंगी तो आपको आपके चेहरे पर यही धूप दिखाई देगी” !! आपके बालों में ये हवा, आस – पास हजारों लोगो की आवाज़े ...सब चला जायेगा ...हमेशा के लिए सब चला जायेगा .............
फोटो खींचते रफ़ी (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ) की ये बातें कुछ अलग है ! कुछ है – जो रुकनें को मजबूर सा करता है और मिलोनी ( सान्या मल्होत्रा ) फ़ोटो खिचवा लेती है | मिलोनी को फोटो देखकर लगता है वह उसमें ज्यादा खुश लग रही है और सुन्दर भी !
मिलोनी मुंबई के मध्यमवर्गीय गुजराती परिवार से है और सी .ए .की तैय्यारी कर रही है | टॉपर स्टूडेंट है | रफ़ी यू . पी . से आया हुआ स्लम जैसी जगह में रहने वाला साधारण मुस्लिम फोटोग्राफ़र है जो गेटवे ऑफ़ इंडिया में फोटो खींचता है | दोनों में कोई समानता नहीं है ना धर्म की, ना वर्ग की, ना ही रंग - रूप की .......फिर भी धीरे – धीरे मिलोनी, रफ़ी और उसकी दादी के करीब होती जाती है और उनके साथ खुश दिखाई देती है ! वही दादी जो लम्बे समय से रफ़ी पर निकाह करने के लिए दबाव बना रही थी ...रफ़ी के एक झूठ के कारण मिलोनी को अपनी होने वाली बहू मान लेती है, और एक प्लेट में रसगुल्ला – गुलाबजामुन जैसी इस जोड़ी को करीब ले आती है |
फिल्म देखते समय आप इस जोड़ी को स्वीकार नहीं कर पाएंगे जिसे फिल्म के दौरान भी कई द्रश्यों में बेमेल बताया गया है ! ऐसा लगता है जैसे डायरेक्टर ने इरादतन, कहानी में इस बेमेल सी लगने वाली जोड़ी के बीच भावनात्मक समानताओं के आधार पर बहोत धीरे से पनपे रिश्ते को संभव होते दिखाया है | फिल्म आधी होने तक भी कई बार ऐसा लगता है कि दोनों अपने – अपने रास्ते चले जायेंगे, लेकिन कभी – कभी कुछ मोड़ हमें वापस उसी जगह पे ले आते है जहाँ हमारा होना नामुमकिन सा होता है .... खासकर जब एहसास जुड़नें लगते है ! हाँलाकि डायरेक्टर ने फिल्म के अंत को किसी निर्णायक स्थिति में ना लाते हुए दर्शकों पे छोड़ दिया है क्योंकि इस कहानी में अंत से ज्यादा महत्वपूर्ण है प्रेम का घटना ! असम्भव का संभव हो पाना |
अभिनय की बात करें तो नवाज़ नें अपने गहरे सधे हुए भावों के साथ रफ़ी के किरदार को बखूबी निभाया है ,उनके भाव प्रशंसात्मक आनंद दे जाते है !सान्या मल्होत्रा ने मिलोनी को जीवंत कर दिखाया है | रफ़ी के साथ रहने वाले दोस्तों में आकाश सिन्हा व सहर्ष कुमार शुक्ला है - जो एफ़ .टी. आई. आई. फिल्म स्कूल से है इनका अभिनय और संवाद अदायगी अच्छी लगी – एक समय था जब नवाज़ खुद ऐसे या इससे भी छोटे रोल में चंद लम्हों के लिए ही स्क्रीन पर दिखाई दिया करते थे लेकिन उनकी अदाकारी के कमाल ने लोगो का ध्यान खींचा और आज वे कहाँ है दुनिया जानती है | लेकिन मुझे इस फिल्म में जिन्होंने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है वो है – रफ़ी की दादी ! इतनी खूबसूरत अदाकारी और सीधे दिल से निकलते जज़्बात, लग रहा था जैसे डायरेक्टर नें उनके ऊपर ही छोड़ दिया हो कि जो आपको सही लगे वो करिए, दादी का मौके के हिसाब से संवाद सटीक था, लगा ही नहीं की अभिनय कर रहीं हो !! नवाज़ और दादी का बस में बातचीत का द्रश्य मुझे सबसे ज्यादा अच्छा लगा |
रितेश बत्रा की फिल्म से स्क्रिप्ट में कुछ और कसावट की उम्मीद थी ....शुरुवात के कुछ द्रश्य जिसमें सब दादी के दवा न लेने के बारे में पूछ रहे है कमज़ोर और बेतुके से लगे | जहाँ द्रश्य में एक्टर अच्छे है वहाँ तो फिल्म बांधती है लेकिन कुछ संवाद और परिस्थितियां नकली लगे | लंचबॉक्स जैसी अद्भुत फिल्म के डायरेक्टर से उम्मीद भी तो और बेहतर की ही होगी ....फिर भी फिल्म एकबार देखने जैसी है |
फिल्म के बैकग्राउंड में एक मधुर धुन चलती रहती है जो एक पुरानी महान फिल्म द पोस्टमैन के धुन की याद दिलाती है !
डायरेक्टर – रितेश बत्रा .
अभिनय – नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, सान्या मल्होत्रा, आकाश सिन्हा, सचिन खेडेकर |
-प्रियंका वाघेला
22\05\2019
#filmreview #फिल्मसमीक्षा #फोटोग्राफ Photograph

फिल्म समीक्षा – दे दे प्यार दे

फिल्म समीक्षा – दे दे प्यार दे
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आशीष (अजय देवगन)उम्र पचास, पिछले 18 सालों से अपने परिवार से अलग रह रहा है लन्दन में, अपने से आधी उम्र की लड़की आएशा ( रकुलप्रीत ) से उसे प्यार हो जाता है ! आएशा भी उम्र के इस फ़ासले के बावज़ूद आशीष से प्यार कर बैठती है | आएशा को अपने परिवार से मिलवाने आशीष इंडिया लेकर आता है ....खुद से जुड़े हर रिश्ते को आशीष छोड़कर चला गया था सालों पहले अपनी ज़िन्दगी अपने ढंग से जीने के लिए –तो उसके इस तरह अचानक, बिना बताये आ जाने से उसका परिवार- खासकर बेटी नाखुश है यहाँ सभी ने उसके बिना जीना सीख लिया है |
फिल्म अपने पहले भाग में आशीष और आएशा के बीच प्यार और उम्र के फ़ासले पर हास्य व्यंग के ताने-बाने को लेकर आगे बढ़ती है, अजय देवगन और जावेद जाफरी (डॉक्टर और आशीष का दोस्त) के बीच के संवाद- उम्र और रिश्ते की बहस में हास्य का बुलबुला बनाते है ख़ासकर जावेद जाफरी जब अजय को बुड्ढा बुलाते है तो हंसी का बुलबुला ज़ोर से फूटता है, जावेद उन दोनों के बीच के ‘जनरेशन गैप’ को लेकर अपने दोस्त को सावधान भी करता है | आशीष आएशा को इंडिया ले तो आता है लेकिन परिवार के लोग भी आशीष की ही तरह आगे बढ़ चुके है अपने नए रिश्ते के बारे में आशीष एकदम से नहीं कह पाता आऐशा भी वहाँ अपने हमउम्र बच्चों को देखकर हैरान है और फिर सामने आती है तब्बू ! खूबसूरत ग्रेसफुल और समझदार, अनुभवी आँखें आएशा को पढ़ लेती है | फिर शुरू होता है परिवार का असली मज़ा -थोड़े ताने कुछ खीचातानी कॉमेडी,ट्रेजेडी ,लेकिन इन सबके बीच तब्बू (मंजू ) अपने अभिनय से फिल्म के दुसरे भाग में छाई रहती है इतनी बारीकी से उन्होंने सालों से अलग रह रही बीवी का ,अकेली माँ ,और परिस्थितियों से अकेले निपटती स्त्री का किरदार निभाया है की आँखे उनपर से हटती ही नहीं है !
यह फिल्म लिव-इन ,प्यार ,उम्र के फ़ासले और रिश्तों के टूटने के बारे में काफी सुलझे हुए ढंग से अपनी बात कहती है आशीष (अजय देवगन) रिश्तों को निभाने में कामयाब भले ही न रहा हों लेकिन वह रिश्तों को लेकर ईमानदार है इसलिए तब्बू से राखी बंधवाने वाला सीन थोड़ा ओवर लगता है जबरदस्ती हास्य को घुसाने की कोशिश की गयी है |कुमुद मिश्रा अपने छोटे से रोल में भी काबिले तारीफ़ अभिनय से अपनी उपस्थिति बनाये रखते है उनकी और समधन तब्बू की - लिव इन के विषय पर बातचीत काफ़ी रोचक और दोगली मानसिकता को उघाड़ने वाली है !जिमी शेरगिल का किरदार काफ़ी कमज़ोर लगा शायद बुनावट थोड़ी बेहतर होती तो वे अच्छा कर सकते थे रकुलप्रीत ने अपने हिस्से का अभिनय अच्छा किया है लेकिन तब्बू की एंट्री होनें के बाद दूसरों पर ध्यान कम जाता है ,बाकी कलाकारों का अभिनय ठीक – ठीक है| फिल्म के गाने सामान्य से है ....तब्बू के सुलझे हुए किरदार को गढ़ने के लिए लेखक को बधाई ! अकीव अली हास्य को रचने में थोड़े से कमज़ोर लगे ...लेकिन फिर भी फिल्म के कई द्रश्य सहज और भावनात्मक रूप से ख़ूबसूरती से गढ़े गये है ,कुल मिलाकर फिल्म देखने जैसी है |

डायरेक्टर – अकीव अली
अभिनय – अजय देवगन, तब्बू, रकुलप्रीत सिंग, जिमी शेरगिल, जावेद जाफरी, कुमुद मिश्रा .
प्रियंका वाघेला
18 \5\2019
#फिल्मसमीक्षा #filmreview #DeDePyaarDe De De Pyaar De

फिल्म समीक्षा - The Fakir of Venice

हद –अनहद दोउ तपे वाको नाम फ़कीर
फिल्म समीक्षा - The Fakir of Venice
आदि कॉन्ट्रैक्टर (फरहान अख्तर ) इस फिल्म में एक ऐसा बंदा है - जो कभी किसी भी काम के लिए ना नहीं कहता फिल्मों और आर्ट गैलरी के लिए(Production coordinator ) काम करता है उन्हें जो भी चाहिए हो “आदि” हाज़िर कर देता है ! फिल्म के पहले ही द्रश्य में आदि एक बन्दर को फॉरेन फिल्म क्रू के लिए बॉर्डर पार करवाकर पहुँचाता है, बन्दर गाड़ी के भीतर थोड़ा परेशान दिखाई पड़ता है ऊपर से आदि उससे अंग्रेजी में बात करता है, "बन्दर और आदि ( इंसान ) के बीच कोई भाषा हो भी नहीं सकती है अगर कुछ हो सकता है तो वो है संवेदनशीलता जो आदि के किरदार में नहीं है” बेचारा बन्दर किसी तरह सो जाता है |
आदि विदेश में फिल्म स्कूल में पढ़ना चाहता है जिसके लिए उसे पैसे चाहिए जो शायद उसे खुद को जुटाने है, फिल्म में उसके परिवार का कोई ज़िक्र नहीं है उसे देश से बाहर जाना है और इसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार है - इसबार उसे वेनिस के एक आर्टिस्ट के आर्ट इंस्टालेशन के लिए एक फ़कीर का इंतजाम करना है जो अपने आपको ज़मीन में दफ़न कर सके कई घंटों तक ! तो....आदि निकल पड़ता है फ़कीर की खोज में !! बनारस के सिवाय ऐसी और कौन सी जगह हो सकती है हिन्दुस्तान में जहाँ फकीरों की फ़ौज मिले ? लेकिन नहीं – यहाँ वाकई अजब –गजब किस्म के फ़कीर है ! अनोखी लीलाएं करने में माहिर पैरों के इशारे से डॉलर मांगने वाले , एक सुट्टा मारकर पल-भर में भारत में वेनिस ले आने वाले ! लेकिन वैसे नहीं जिसकी तलाश आदि को है ... तो अपने आदि ने भी सुट्टा मारा और लौट आया खाली हाथ बिना दफ़न होने वाले फ़कीर के |
अब क्या किया जाय ? ठहरिये ....आदि अकेला नहीं है ! उसकी तरह किसी भी काम को हो जायेगा बोलनें वाला कोई और भी है – जो आदि के लिए दफ़न होने वाले सत्तार को ढूँढ निकालता है, सत्तार एक दिहाड़ी मजदूर है फ़कीर नहीं, लेकिन वह बचपन से मुंबई के जुहू बीच में अपने आपको दफ़न करने वाला खेल दिखाता आ रहा है उसकी बहन इस काम में उसकी मदद करती है | आदि सत्तार और उसकी बहन से मिलता है किसी तरह बात बन जाती है और वह सत्तार को लेकर पहुँच जाता है “वेनिस”| सत्तार एक साफ़ मन का सहज व्यक्ति है उसकी दुनिया बहन और मुंबई के चारों ओर ही सिमटी रही है वेनिस आकर सत्तार की हालत बिलकुल उस बन्दर की तरह लगती है जो चारों तरफ गोरों को देखकर हैरान है ! ऊपर से यहाँ कोई भी उसकी भाषा नहीं जानता है |खैर सत्तार आदि का काम करता है लेकिन इस बीच उसकी तबियत बिगड़ने लगती है | आदि अपना मकसद पूरा करने के लिए सत्तार का उपयोग कर रहा होता है ,मस्सिमो (वेनिस का कलाकार )सत्तार की सच्चाई जानते हुए भी अपनी कला के प्रदर्शन में सत्तार और आदि को भी शामिल कर उनका उपयोग कर लेता है और सत्तार अपनी मजबूरी की वजह से आदि से अपनी बीमारी का सच छुपाकर उसका उपयोग कर रहा होता है !
उपयोग करना ,फायदा उठाना , अपना काम निकालना ........हम सब कभी ना कभी किसी न किसी का उपयोग करते है, अपनों का- गैरों का, रिश्तों का, किसी की मजबूरी का या खुद किसी बात से मजबूर होकर ......हमें एक दूसरे की भाषा आती है लेकिन मन पढ़ना हम नहीं जानते...... आदि के पास किसी की तकलीफ़ को समझने के लिए वक्त नहीं था, सत्तार का मन साफ़ आइना था जिसमें झांको तो खुद का मन भी दिख जाता था ! लेकिन वक्त उसके पास भी नहीं था ....फिल्म इंसानी फितरतों को बखूबी बयां करती है ! कुछ एक कमियों के बावज़ूद फिल्म देखने जैसी है खासकर अन्नू कपूर का अभिनय बेमिसाल है ! फिल्म की शुरुवात बहोत ही खूबसूरत पहाड़ी इलाके के द्रश्यों से होती है ! लेकिन बाद में फिल्म के द्रश्यों में बेहतर सिनेमेटोग्राफी की कमी खलती है ,खासकर वेनिस में फिल्माएँ द्रश्यों में |पानी पर तैरते इस शहर की ख़ूबसूरती और उसकी वह खासियत जिसकी वजह से वेनिस मशहूर है नदारत है !.....
वेनिस पूरी दुनिया में अपनी कला से सम्बंधित गतिविधियों के लिए जाना जाता है, अद्वितीय संग्रहालय, आर्ट गैलरी, स्तरीय फिल्म फेस्टिवल........ फिल्म का विषय भी वेनिस और उसमें होने वाले आर्ट इंस्टालेशन पर आधारित होने के बावजूद गैलरी के द्रश्यों का फिल्मांकन काफ़ी सिमटा–सिमटा सा लगा ! वहाँ के कलाकार( मस्सिमो ) जिसने आदि को फ़कीर के साथ बुलाया था - का किरदार भी ठीक से बुना नहीं गया है, आदि सत्तार को लेकर जाता है और दफ़न करता है दो चार लोग देखकर हैरान होते है ...कुल –मिलाकर द्रश्य विषय के महत्व को कम करते से लगे द्रश्यों में थोड़ी और गहराई हो सकती थी |
ऐ आर रहमान का संगीत फिल्म की रगों में प्राण फूंकता है ,हमेशा की तरह बेजोड़ एवँ मधुर रहमान |
डायरेक्टर - आनंद सुरापुर | अभिनय - फरहान अख्तर, अन्नू कपूर, कमल सिद्धु
संगीत - ए.आर.रहमान .
- प्रियंका वाघेला
17 \5 \2019
#फिल्मसमीक्षा #filmreview #फिल्मसमीक्षा #zee5 #thefakirofvenice
The Fakir Of Venice October Films India

तीन और आधा - फिल्म समीक्षा

तीन और आधा - फिल्म समीक्षा
Three and a Half - Teen Aur Aadha
यह फिल्म एक ही बिल्डिंग में पिछले पचास वर्षों के कालखण्ड में अलग –अलग समय में रहने वाले लोगों की कहानी कहती है |घर की दीवारें उन लोगों को उनके बिताये हुए जीवन को देखती आ रही है ये कहानी दरअसल हमसे घर की दीवारें ही बयाँ करती है, फिल्म देखते हुए हम भी उन किरदारों से जुड़ाव महसूस करते है और खुद को उनके बीच ही कही पाते है ! ....यही फिल्म की कामयाबी है - की वह हमसे हमारी ही जैसी जिंदगियों की बात करती है आडम्बर नहीं रचती |
फिल्म शुरू हो रही है.... एक जादुई धुन सुनाई देती है , मानो पहाड़ी बारिश की बूंदे चिनार से होकर घुंघरुओं सी बजती टपक रही हो ! रेगिस्तान की तपती रेत से झुलसा हुआ मन अचानक पहाड़ की गोद में आ जाए तो वहाँ से लौटना क्यूँ चाहेगा भला ? एसा ही लगता है जब गीत समाप्त होता है उसे फिर- फिर सुनने को मन करता है ! …..खैर ...कांदा , बटाटा ........ले , यह आवाज़ हमें हक़ीकत में वापस ले आती है * यमराज * फिल्म का पहला भाग – 29 फरवरी को जन्में राज ( Arya Dave ) का बारहवां जन्मदिन है जो इस ख़ास तारीख की वजह से अपना जन्मदिन चार सालों में एकबार ही मना पाता है |उसे लगता है की उसका जन्मदिन किसी को याद नहीं है ...इसलिए वो बड़े ही बेमन से स्कूल जाता है लेकिन यूनिफ़ॉर्म नहीं -नई पीली शर्ट पहनकर , टीचर उसे डाँटकर घर वापस भेज देती है यूनिफार्म पहनकर आने को , कमरे में राज के बीमार नाना (Anjum Rajabali ) है जो चल फिर नहीं सकते अपनी बीमारी, अकेलेपन से दुखी और उकताए हुए से है | वो राज से कुछ देर बैठने और बात करने को कहते है उसे उपहार देते है राज खुश हो जाता है की उसके नाना को उसका जन्मदिन याद है !! नाना उससे ढेर सारी बातें करना चाहते है – अपने बचपन की ,रिश्तों की ,मृत्यु की और मोक्ष की .....एसा लगता है जैसे वो किसी तैय्यारी में है ! राज की मदद से उनकी तैय्यारी पूरी होती है और वे मोक्ष की यात्रा पे चले जाते है | क्या वृद्ध अशक्त व्यक्ति को मृत्यु अधिक सुखदाई लगती है ! या उसका अकेलापन उसे यम का साथी बना देता है ? बच्चे और नाना के बीच के द्रश्य और बातचीत सहज, आत्मीय है, अभिनय किया नहीं गया है बल्कि जिया गया है !! वहीँ फिल्म का पहला द्रश्य जिसमे वेला दीदी को सब्जी खरीदते दिखाया है काफ़ी नकली है ,सब्जीवाला अपने किरदार में है ही नहीं ..खासकर तब जब वह आज से पचास साल पहले का सब्जीवाला है !
नटराज फिल्म का दूसरा भाग – घर वही है लेकिन यहाँ अब एक वेश्यालय है ! एक युवक( Jim Sarbh ) हाथों में गुब्बारे लिए वहाँ आता है और थोड़ी देर के लिए वहाँ खेल रहे एक बच्चे को दे देता है उसे देखकर हम पिछली कहानी से घटनाओं को जोड़कर देखनें की कोशिश करते है की कही ये राज तो नहीं बड़ा होने के बाद लौटकर आया हो ? लेकिन नहीं फिल्म की हर कहानी एक दुसरे से बिलकुल अलग है सिवाय इसके की ये सारे जीवन एक ही घर में जिए गये | वह जिस लड़की – “सुलेखा” (Zoya hussain ) के पास जाता है वह तैयार नहीं है यह उसके लिए पहली बार है ....नटराज उससे बातें करने लगता है बातों - बातों में वह उससे अपनी परेशानी कह देता है की वह वेश्यालय के आलावा कही और सम्बन्ध नहीं बना पता है और दुनिया की हर स्त्री वेश्या नहीं है .....तो उनके लिए वह एक तरह से नपुंसक ही है !! बहरहाल कुछ देर बाद सुलेखा खुद पहल करती है ....नटराज के जाने के बाद दूसरा ग्राहक आता है , सुलेखा उससे भी पहली बार वाली बात कहती है ...और अपना एक नया नाम बताती है ! सुलेखा की गढ़ी नई कहानी व उसके किरदार के इस नये पहलू से हतप्रभ हम फिल्म के तीसरे भाग में प्रवेश करते है |
कामराज - फिल्म का तीसरा भाग जिसकी शुरुवात होती है अपनी पत्नी को अकेले में नाचते देखकर ! - सत्तर वर्षीय पति - पत्नी के बीच इतनी खूबसूरत बातचीत गहरा लगाव और प्रेम क्या संभव है !! शायद हाँ ....होना ही चाहिए वर्षों का साथ कितने सारे वाकये ,जीवन की कड़वी सच्चाई तो कभी बिन मांगे मिले खुशियों के ठहाके ,एक दुसरे के सबसे करीब होते हुए भी कई बार बहोत कुछ एसा हो सकता है जो जानने से छूटा रह जाता हो एक दुसरे के बारे में ! कुछ एसा जो कहते – कहते रह गये हो, बोला हुआ कुछ एसा जो आज भी कानों में गूंजता हो.... मन ऐसी दीवारों वाला घर है जहाँ उसके अपने मौसम है ,वक्त उसके हिसाब से चलता है और कभी- कभी तो ठहरा रहता है उन- बरसों में जिसने सबसे अधिक ठगा था हमें !ऐसे ही कुछ भीगते पलों से बुने गये द्रश्य है – कामराज में | यह फिल्म का सबसे खूबसूरत हिस्सा है जहाँ प्रेम से भीगे कमरे में समंदर खिड़की से झाँकता है !! एम के रैना और सुहासिनी मुले ने अपनें किरदारों को कुछ ऐसे निभाया है की मैं निशब्द हूँ केवल इतना कह सकती हूँ की जिन्होंने फिल्म नहीं देखी है वो जरूर देखे, इससे ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता है !!
फिल्म में मानव मन, प्रेम और रिश्तों की बारीकियों को इतने अनूठे ढंग से पिरोने वाले फिल्मकारों से फिल्म के इस हिस्से में एक ऐसी तकनीकी त्रुटी रह गयी है जो मायूस करती है ......एम के रैना और सुहासिनी मुले जब बात कर रहे है ,और रैना कपड़े बदलने कमरे से जुड़े एक छोटे से हिस्से में जाते है तो चार बार माइक या शायद लाइट के स्टैंड का एक हिस्सा आईने के पास बार – बार आता है यह द्रश्य में 1 ;39 ;7 एक घंटे, उनचालीस मिनट और सात सेकण्ड पर शुरू होकर अगले दस से पन्द्रह सेकेण्ड तक चार बार आता है !! एडिटर या डायरेक्टर का इसपर ध्यान कैसे नहीं गया ! या इस द्रश्य का दूसरा कोई विकल्प उनके पास नहीं था क्यूकी फिल्म को तीन लाँग टेक में फिल्माया गया है ( जो एक कमाल भी है )...जो भी हो यह अचानक से दिखाई देकर पूरी बातचीत के तारतम्य को तोड़ता है |
निर्देशक – Dar Gai ( Daria Gaikalova ) एवँ धीर मोमाया (Dheer Momaya) का सांझा निर्देशन है |
लेखक - Dar Gai |
संगीत - विविएन्ने मोर्ट ( Vivienne Mort ) |
फिल्म की सिनेमेटोग्राफी कमाल की है द्रश्यों में हमें बांधे रखती है , आर्ट डायरेक्शन का महत्वपूर्ण योगदान है पूरी फिल्म में- क्युकी एक ही बिल्डिंग को तीन अलग –अलग समय और वहाँ रहने वालों के हिसाब से बखूबी ढाला गया है | विविएन्ने मोर्ट (Vivienne Mort )का संगीत बर्फीली पहाड़ी पर हल्के से पसरती हुयी धूप है !! जो आपको अपने आगोश में ले लेती है .....सुनते समय हम उसकी भाषा ,पर सवाल नहीं उठाते केवल आनंद लेते है
फिल्म की निर्देशिका Dar Gai (Daria Gaikolova ) युक्रेन से है जो दस वर्ष की उम्र से वहाँ के थियेटर ग्रुप Incunabula का हिस्सा रही है साथ ही कई अन्य नामी थियेटर ग्रुप के साथ जुड़कर उन्होंने अभिनय किया है ,वे भारत में भी कई वर्षों से लेखन व निर्देशन से जुड़े कार्य कर रही है | तीन और आधा उनकी पहली नरेटिव फिल्म है जो पैंतीस अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में गयी है और 12 अवार्ड्स प्राप्त किये है | "नामदेव भाऊ" इनकी अगली फिल्म है |
सबसे आखिर में इस फिल्म के मुख्य अभिनेताओं की बात करते हुए – अपने पात्रों के लिए सटीक अभिनेताओं को चुनने पर मैं बधाई देना चाहूंगी कास्टिंग डायरेक्टर्स व डायरेक्टर्स को ! हर पात्र ने अभिनय की परिपूर्णता के साथ अपने - अपने किरदारों को जिया है | सभी अपनी जगह बेजोड़ है !
प्रियंका वाघेला
10\05\2019
#filmreview #फिल्मसमीक्षा #teenauraadha #NetflixIndia #Netflix Three and a Half - Teen Aur Aadha

हिचकी ......और टॉरेट सिंड्रोम

हिचकी ......और टॉरेट सिंड्रोम
टॉरेट सिंड्रोम एक न्यूरोलौजिकल प्रॉब्लम है जिसकी शुरुवात आमतौर पर बचपन में होती है ,इस बीमारी में व्यक्ति के तंत्रिका तंत्र में समस्या होती है - जिसमे वे अनियंत्रित गतिविधियाँ करते है या अचानक आवाज़े निकालते है जिन्हें Tics कहा जाता है |इसमें अचानक से आवाज़े निकालना ,बाँहें हिलाना ,गला साफ़ करना , बार - बार सूंघना , होटो को हिलाना शामिल है इन लक्षणों पर रोगी का कोई नियंत्रण नहीं रहता है ,हाँलाकि टॉरेट सिंड्रोम से रोगी की बौद्धिक क्षमता पर कोई असर नहीं पड़ता है ,लेकिन अपनी अनियंत्रित गतिविधियों की वजह से वे शर्मिंदगी महसूस करते है और उनकी सामजिक गतिविधियों में भागेदारियां कम होती जाती है | इस बीमारी का सटीक कारण अभी तक अज्ञात है |इसका कोई इलाज नहीं है लेकिन दवाइयों और मनोवैज्ञानिक थैरेपी के जरिये इसे कुछ हद तक नियंत्रित किया जा सकता है |
फिल्म का पहला द्रश्य - रानी मुखर्जी एक स्कूल में इन्टरव्यू देने आई है ,एक बच्चे का पेपर एरोप्लेन उसके पैरों के पास आकर गिरता है रानी उसे उठाकर देते समय जा ..जा ...............जा जा की अजीब सी आवाज़े निकालती है और अपना सर झटकती है ...........यह सीन देखकर सच में हंसी आ गयी , लेकिन ये आवाज़ रूकती नहीं वो अपने मुँह में पेंसिल दबाकर उसे रोकने की कोशिश करती है तब लगता है के वो तकलीफ़ में है ! आगे के द्रश्य में जब रानी बताती है की उन्हें हिचकी नहीं आ रही ये एक बीमारी है जिसे टॉरेट सिंड्रोम कहा जाता है ....इन्टरव्यू लेने वाले लोग उनसे इस बीमारी के बारे में पूछते है की क्या सोते समय भी वे ऐसी आवाज़े निकालती हैं ? रानी जवाब देती है -नहीं सर तब तो मैं सो रही होती हूँ ना ! * लेकिन कब तक सोते रहेंगे ...मैं और मेरा टॉरेट *
नैना माथुर के किरदार की सबसे बड़ी खासियत है उनका आत्मविश्वास ! और रानी मुखर्जी ने टॉरेट सिंड्रोम को इस तरह निभाया है की हमें वे सचमें इस सिंड्रोम से पीड़ित नैना लगती है और हमारे सामने पूरी फिल्म में दो ही चीज़े रहती है उनकी तकलीफ , और दूसरों के सिंड्रोम दूर करने की कोशिशे !!
नैना टीचर ही बनना चाहती है क्योंकि जब वो छोटी बच्ची थी और इस बीमारी से परेशान थी तब उसके एक टीचर ने उसकी तकलीफ को समझा उसे सम्मानित ढंग से सामान्य बच्चों के साथ पढ़नेका हक़ दिलाया आत्म विश्वाश लौटाया जो समाज के बाकी लोगो के साथ - साथ उसके पिता भी नहीं कर पाए थे और शर्मिंदा थे उसकी कमज़ोरी पर |नैना एक अच्छे शिक्षक की कीमत पहचानती थी एक अच्छा शिक्षक छात्र का जीवन बदलनें की ताकत रखता है जो नन्हा पौधा उसकी जमीन पे नाज़ुक जड़ों के साथ आता है उसे जमीन की मजबूत पकड़ के साथ आसमान की ओर सर उठाकर देखना शिक्षक ही सिखाते है और नैना फिल्म में यह कर दिखाती है - उन्हें 9 f की क्लास मिलती है पढ़ाने के लिए जिसमे पास की झुग्गी के कुछ बच्चे आते है जिन्हें राईट टू एजुकेशन के तहत एडमिशन देना स्कूल की मजबूरी होती है और पूरे स्कूल के लिए ये बच्चे किसी सिंड्रोम की तरह है, जिससे वे छुटकारा पाना चाहते है | नैना इन बच्चों के लिए स्कूल और टीचर्स की नापसंदगी को देखती और समझती है , वहीँ दूसरी ओर बच्चों की नफ़रत ,बदमाशियों ,और उसे भगा देने की सारी कोशिशों को अंततः अपने लिए प्यार और सम्मान में बदल देती है साथ ही बदलते है 9 f के सभी बच्चे और पूरा स्कूल !
हम सभी अपनी कमियों से भागते है , उन्हें स्वीकारना नहीं चाहते ठीक नहीं करना चाहते ....वैसे भी जब तक स्वीकारेंगे नहीं तो कमियाँ ठीक भी कैसे होँगी ? हाँ लेकिन एक चीज़ जरूर है जो हममे से अधिकांश लोग किया करते है - दूसरों में कमियाँ खोजना और उनकी हंसी उड़ाना......उसपर अगर किसी को शारीरिक अक्षमता हो तो हम उसकी सहायता के लिए आगे आने की बजाय उसपर आसानी से हँस लेते है या किनारा कर लेते है | हम सभी को परफेक्शन चाहिए हर बात में हर रिश्ते में .....कभी हाथ बढ़ाकर देखिये किसी की कमियों को दूर करने उसे संभालने हम खुद परफेक्ट हो या न हो खुश ज़रूर रहनें लगेंगे |
प्रियंका वाघेला
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फ़िल्म समीक्षा - अनुभव !

फ़िल्म समीक्षा - अनुभव !
सन 1971 में बनी कमाल की फिल्म ! आश्चर्यजनक रूप से अपने साथ बहा ले जाने वाला, नहीं बल्कि ये कहना ज्यादा ठीक होगा की अपने साथ बिठाकर रखने वाला - सहज अभिनय ! संजीव कुमार जी व तनुजा जी का | देखते हुए एसा लगने लगता है की हम उनके बीच ही है कहीं !!
पति -पत्नी के रिश्तों पर अनगिनत फ़िल्में बनती आई है ....वैसे भी जितने किरदार जन्म लेते है उतनी ही कहानियाँ भी अमर बेल सी उन किरदारों से लिपटी आगे बढ़ती जाती है ! एक दुसरे के लिए बने ...एक साथ रहते हुए भी पति- पत्नी होते तो एकदम जुदा प्राणी ही है ,उनके बीच प्रेम ही वो संगीत होता है जो सुरों से सजाकर और बांधकर रखता है इन विपरीत ध्रुवों को !
अनुभव फिल्म की सबसे ख़ास बात जो मुझे लगी वह है फिल्म की कहानी जो साधारण सी होकर भी बारीक अनुभवों से गुथी हुई है -
मीता सेन (तनुजा ),अमर सेन (संजीव कुमार ) दोनों छह सालों से शादी - शुदा है और अमर के काम के प्रति समर्पण और उससे उपजी व्यस्तता की वजह से दोनों के बीच यांत्रिक सी दिनचर्या है जिसे पार्श्व में आती घड़ी की टिक -टिक की आवाज़ आपसे बड़ी ही निपुणता से कह जाती है | घर में वैभव है नौकरों की फ़ौज है महफ़िले है पर मीता के पास वो संसार नहीं जो एक स्त्री चाहती है, जिसमें पलकों पर ख़्वाबो के एहसास से नींद नहीं आती है, अपने आपको भूल सके कोई - कोई इस तरह पास हो !जिसके साथ छूटा हुआ बचपन दोबारा ओढ़ ले लिहाफ सा और उसके भीतर के संसार में दो जोड़ी आँखों के सिवाय कोई बोलता न हो !!
आखिरकार मीता अपने घर की बागडोर अपने हाथों में लेती है और सबसे पहले नौकरों की फ़ौज को चलता करती है सिवाय एक पुराने बुजुर्ग नौकर हरी को छोड़कर जिस किरदार को बखूबी निभाया है श्री ऐ के हंगल जी ने |वो घर के किसी बुजुर्ग की तरह मीता की कोशिशों को देखकर खुश होते है ,मीता काफ़ी हद तक सफल भी हो रही होती है अपने पति के करीब आने में की उसका अतीत शशी - भूषण (दिनेश ठाकुर ) सामने आ जाता है ,उसे अमर के प्रेस में काम चाहिए और उसे लगता है की शायद मीता की सिफारिश से काम बन जाय |यहाँ एकबार लगता है की वही घिसी -पिटी ब्लैकमेल वाली कहानी है क्या ? लेकिन नहीं शशी एक काबिल और समझदार व्यक्ति निकलता है उसे मीता की सिफारिश के बगैर भी अमर काम पर रख लेता है |मीता को शशी और अमर की नजदीकियां पसंद नहीं आती है वह एक समर्पित पत्नी की तरह शशी को अमर से दूर रहने को कहती है अमर दोनों को बाते करते हुए सुन लेता है ,वह मीता से नाराज़ हो जाता है और शशी को नौकरी छोड़ने के लिए कहता है -शशी खुद परिस्थितियों को समझते हुए त्यागपत्र साथ ही लाया होता है यह देखकर अमर का गुस्सा शांत होता है वह समझता है की अतीत तभी सामने आता है जब हम अपने आज को सही तरह से नहीं जी पाते है |
वह घर लौटता है - मीता उसकी सारी बातें बिना कहे ही समझ जाती है और उसे कुछ बोलने ही नहीं देती अमर अपनी सारी समझदारी समझाने की कोशिश में मीता के अनुभव से हार जाता है !! मीता को अपना संसार मिल ही जाता है |
फ़िल्म की बुनावट हर द्रश्य के साथ खूबसूरत होती जाती है !जिसके धागे रंगीनियत से खिल उठते है गीता दत्त की आवाज़ और गुलज़ार के शब्दों से फिल्म का हर गीत रूमानियत ,कशिश ,और प्रेम से पगा हुआ है !! संगीत निर्देशक कनु रॉय ने जो संगीत रचा है वह आज भी सुननें में 48 साल पुराना नहीं लगता है ! ये वह फिल्म है जो अगर पहले कभी देखी भी हो तो एकबार फिर से देखनी चाहिए अपने आज को प्यार में डूब कर जीने के लिए |
इस फ़िल्म को 1972 में नेशनल फिल्म अवार्ड फॉर सेकण्ड बेस्ट फिल्म दिया गया था |
फ़िल्म के डायरेक्टर है - बासू भट्टाचार्या
मीता का किरदार निभाया है - तनुजा जी ने
अमर का किरदार निभाया है - संजीव कुमार जी ने
संगीत दिया है - कनु रॉय