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फ़िल्म समीक्षा - अनुभव !

फ़िल्म समीक्षा - अनुभव !
सन 1971 में बनी कमाल की फिल्म ! आश्चर्यजनक रूप से अपने साथ बहा ले जाने वाला, नहीं बल्कि ये कहना ज्यादा ठीक होगा की अपने साथ बिठाकर रखने वाला - सहज अभिनय ! संजीव कुमार जी व तनुजा जी का | देखते हुए एसा लगने लगता है की हम उनके बीच ही है कहीं !!
पति -पत्नी के रिश्तों पर अनगिनत फ़िल्में बनती आई है ....वैसे भी जितने किरदार जन्म लेते है उतनी ही कहानियाँ भी अमर बेल सी उन किरदारों से लिपटी आगे बढ़ती जाती है ! एक दुसरे के लिए बने ...एक साथ रहते हुए भी पति- पत्नी होते तो एकदम जुदा प्राणी ही है ,उनके बीच प्रेम ही वो संगीत होता है जो सुरों से सजाकर और बांधकर रखता है इन विपरीत ध्रुवों को !
अनुभव फिल्म की सबसे ख़ास बात जो मुझे लगी वह है फिल्म की कहानी जो साधारण सी होकर भी बारीक अनुभवों से गुथी हुई है -
मीता सेन (तनुजा ),अमर सेन (संजीव कुमार ) दोनों छह सालों से शादी - शुदा है और अमर के काम के प्रति समर्पण और उससे उपजी व्यस्तता की वजह से दोनों के बीच यांत्रिक सी दिनचर्या है जिसे पार्श्व में आती घड़ी की टिक -टिक की आवाज़ आपसे बड़ी ही निपुणता से कह जाती है | घर में वैभव है नौकरों की फ़ौज है महफ़िले है पर मीता के पास वो संसार नहीं जो एक स्त्री चाहती है, जिसमें पलकों पर ख़्वाबो के एहसास से नींद नहीं आती है, अपने आपको भूल सके कोई - कोई इस तरह पास हो !जिसके साथ छूटा हुआ बचपन दोबारा ओढ़ ले लिहाफ सा और उसके भीतर के संसार में दो जोड़ी आँखों के सिवाय कोई बोलता न हो !!
आखिरकार मीता अपने घर की बागडोर अपने हाथों में लेती है और सबसे पहले नौकरों की फ़ौज को चलता करती है सिवाय एक पुराने बुजुर्ग नौकर हरी को छोड़कर जिस किरदार को बखूबी निभाया है श्री ऐ के हंगल जी ने |वो घर के किसी बुजुर्ग की तरह मीता की कोशिशों को देखकर खुश होते है ,मीता काफ़ी हद तक सफल भी हो रही होती है अपने पति के करीब आने में की उसका अतीत शशी - भूषण (दिनेश ठाकुर ) सामने आ जाता है ,उसे अमर के प्रेस में काम चाहिए और उसे लगता है की शायद मीता की सिफारिश से काम बन जाय |यहाँ एकबार लगता है की वही घिसी -पिटी ब्लैकमेल वाली कहानी है क्या ? लेकिन नहीं शशी एक काबिल और समझदार व्यक्ति निकलता है उसे मीता की सिफारिश के बगैर भी अमर काम पर रख लेता है |मीता को शशी और अमर की नजदीकियां पसंद नहीं आती है वह एक समर्पित पत्नी की तरह शशी को अमर से दूर रहने को कहती है अमर दोनों को बाते करते हुए सुन लेता है ,वह मीता से नाराज़ हो जाता है और शशी को नौकरी छोड़ने के लिए कहता है -शशी खुद परिस्थितियों को समझते हुए त्यागपत्र साथ ही लाया होता है यह देखकर अमर का गुस्सा शांत होता है वह समझता है की अतीत तभी सामने आता है जब हम अपने आज को सही तरह से नहीं जी पाते है |
वह घर लौटता है - मीता उसकी सारी बातें बिना कहे ही समझ जाती है और उसे कुछ बोलने ही नहीं देती अमर अपनी सारी समझदारी समझाने की कोशिश में मीता के अनुभव से हार जाता है !! मीता को अपना संसार मिल ही जाता है |
फ़िल्म की बुनावट हर द्रश्य के साथ खूबसूरत होती जाती है !जिसके धागे रंगीनियत से खिल उठते है गीता दत्त की आवाज़ और गुलज़ार के शब्दों से फिल्म का हर गीत रूमानियत ,कशिश ,और प्रेम से पगा हुआ है !! संगीत निर्देशक कनु रॉय ने जो संगीत रचा है वह आज भी सुननें में 48 साल पुराना नहीं लगता है ! ये वह फिल्म है जो अगर पहले कभी देखी भी हो तो एकबार फिर से देखनी चाहिए अपने आज को प्यार में डूब कर जीने के लिए |
इस फ़िल्म को 1972 में नेशनल फिल्म अवार्ड फॉर सेकण्ड बेस्ट फिल्म दिया गया था |
फ़िल्म के डायरेक्टर है - बासू भट्टाचार्या
मीता का किरदार निभाया है - तनुजा जी ने
अमर का किरदार निभाया है - संजीव कुमार जी ने
संगीत दिया है - कनु रॉय

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