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तीन और आधा - फिल्म समीक्षा

तीन और आधा - फिल्म समीक्षा
Three and a Half - Teen Aur Aadha
यह फिल्म एक ही बिल्डिंग में पिछले पचास वर्षों के कालखण्ड में अलग –अलग समय में रहने वाले लोगों की कहानी कहती है |घर की दीवारें उन लोगों को उनके बिताये हुए जीवन को देखती आ रही है ये कहानी दरअसल हमसे घर की दीवारें ही बयाँ करती है, फिल्म देखते हुए हम भी उन किरदारों से जुड़ाव महसूस करते है और खुद को उनके बीच ही कही पाते है ! ....यही फिल्म की कामयाबी है - की वह हमसे हमारी ही जैसी जिंदगियों की बात करती है आडम्बर नहीं रचती |
फिल्म शुरू हो रही है.... एक जादुई धुन सुनाई देती है , मानो पहाड़ी बारिश की बूंदे चिनार से होकर घुंघरुओं सी बजती टपक रही हो ! रेगिस्तान की तपती रेत से झुलसा हुआ मन अचानक पहाड़ की गोद में आ जाए तो वहाँ से लौटना क्यूँ चाहेगा भला ? एसा ही लगता है जब गीत समाप्त होता है उसे फिर- फिर सुनने को मन करता है ! …..खैर ...कांदा , बटाटा ........ले , यह आवाज़ हमें हक़ीकत में वापस ले आती है * यमराज * फिल्म का पहला भाग – 29 फरवरी को जन्में राज ( Arya Dave ) का बारहवां जन्मदिन है जो इस ख़ास तारीख की वजह से अपना जन्मदिन चार सालों में एकबार ही मना पाता है |उसे लगता है की उसका जन्मदिन किसी को याद नहीं है ...इसलिए वो बड़े ही बेमन से स्कूल जाता है लेकिन यूनिफ़ॉर्म नहीं -नई पीली शर्ट पहनकर , टीचर उसे डाँटकर घर वापस भेज देती है यूनिफार्म पहनकर आने को , कमरे में राज के बीमार नाना (Anjum Rajabali ) है जो चल फिर नहीं सकते अपनी बीमारी, अकेलेपन से दुखी और उकताए हुए से है | वो राज से कुछ देर बैठने और बात करने को कहते है उसे उपहार देते है राज खुश हो जाता है की उसके नाना को उसका जन्मदिन याद है !! नाना उससे ढेर सारी बातें करना चाहते है – अपने बचपन की ,रिश्तों की ,मृत्यु की और मोक्ष की .....एसा लगता है जैसे वो किसी तैय्यारी में है ! राज की मदद से उनकी तैय्यारी पूरी होती है और वे मोक्ष की यात्रा पे चले जाते है | क्या वृद्ध अशक्त व्यक्ति को मृत्यु अधिक सुखदाई लगती है ! या उसका अकेलापन उसे यम का साथी बना देता है ? बच्चे और नाना के बीच के द्रश्य और बातचीत सहज, आत्मीय है, अभिनय किया नहीं गया है बल्कि जिया गया है !! वहीँ फिल्म का पहला द्रश्य जिसमे वेला दीदी को सब्जी खरीदते दिखाया है काफ़ी नकली है ,सब्जीवाला अपने किरदार में है ही नहीं ..खासकर तब जब वह आज से पचास साल पहले का सब्जीवाला है !
नटराज फिल्म का दूसरा भाग – घर वही है लेकिन यहाँ अब एक वेश्यालय है ! एक युवक( Jim Sarbh ) हाथों में गुब्बारे लिए वहाँ आता है और थोड़ी देर के लिए वहाँ खेल रहे एक बच्चे को दे देता है उसे देखकर हम पिछली कहानी से घटनाओं को जोड़कर देखनें की कोशिश करते है की कही ये राज तो नहीं बड़ा होने के बाद लौटकर आया हो ? लेकिन नहीं फिल्म की हर कहानी एक दुसरे से बिलकुल अलग है सिवाय इसके की ये सारे जीवन एक ही घर में जिए गये | वह जिस लड़की – “सुलेखा” (Zoya hussain ) के पास जाता है वह तैयार नहीं है यह उसके लिए पहली बार है ....नटराज उससे बातें करने लगता है बातों - बातों में वह उससे अपनी परेशानी कह देता है की वह वेश्यालय के आलावा कही और सम्बन्ध नहीं बना पता है और दुनिया की हर स्त्री वेश्या नहीं है .....तो उनके लिए वह एक तरह से नपुंसक ही है !! बहरहाल कुछ देर बाद सुलेखा खुद पहल करती है ....नटराज के जाने के बाद दूसरा ग्राहक आता है , सुलेखा उससे भी पहली बार वाली बात कहती है ...और अपना एक नया नाम बताती है ! सुलेखा की गढ़ी नई कहानी व उसके किरदार के इस नये पहलू से हतप्रभ हम फिल्म के तीसरे भाग में प्रवेश करते है |
कामराज - फिल्म का तीसरा भाग जिसकी शुरुवात होती है अपनी पत्नी को अकेले में नाचते देखकर ! - सत्तर वर्षीय पति - पत्नी के बीच इतनी खूबसूरत बातचीत गहरा लगाव और प्रेम क्या संभव है !! शायद हाँ ....होना ही चाहिए वर्षों का साथ कितने सारे वाकये ,जीवन की कड़वी सच्चाई तो कभी बिन मांगे मिले खुशियों के ठहाके ,एक दुसरे के सबसे करीब होते हुए भी कई बार बहोत कुछ एसा हो सकता है जो जानने से छूटा रह जाता हो एक दुसरे के बारे में ! कुछ एसा जो कहते – कहते रह गये हो, बोला हुआ कुछ एसा जो आज भी कानों में गूंजता हो.... मन ऐसी दीवारों वाला घर है जहाँ उसके अपने मौसम है ,वक्त उसके हिसाब से चलता है और कभी- कभी तो ठहरा रहता है उन- बरसों में जिसने सबसे अधिक ठगा था हमें !ऐसे ही कुछ भीगते पलों से बुने गये द्रश्य है – कामराज में | यह फिल्म का सबसे खूबसूरत हिस्सा है जहाँ प्रेम से भीगे कमरे में समंदर खिड़की से झाँकता है !! एम के रैना और सुहासिनी मुले ने अपनें किरदारों को कुछ ऐसे निभाया है की मैं निशब्द हूँ केवल इतना कह सकती हूँ की जिन्होंने फिल्म नहीं देखी है वो जरूर देखे, इससे ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता है !!
फिल्म में मानव मन, प्रेम और रिश्तों की बारीकियों को इतने अनूठे ढंग से पिरोने वाले फिल्मकारों से फिल्म के इस हिस्से में एक ऐसी तकनीकी त्रुटी रह गयी है जो मायूस करती है ......एम के रैना और सुहासिनी मुले जब बात कर रहे है ,और रैना कपड़े बदलने कमरे से जुड़े एक छोटे से हिस्से में जाते है तो चार बार माइक या शायद लाइट के स्टैंड का एक हिस्सा आईने के पास बार – बार आता है यह द्रश्य में 1 ;39 ;7 एक घंटे, उनचालीस मिनट और सात सेकण्ड पर शुरू होकर अगले दस से पन्द्रह सेकेण्ड तक चार बार आता है !! एडिटर या डायरेक्टर का इसपर ध्यान कैसे नहीं गया ! या इस द्रश्य का दूसरा कोई विकल्प उनके पास नहीं था क्यूकी फिल्म को तीन लाँग टेक में फिल्माया गया है ( जो एक कमाल भी है )...जो भी हो यह अचानक से दिखाई देकर पूरी बातचीत के तारतम्य को तोड़ता है |
निर्देशक – Dar Gai ( Daria Gaikalova ) एवँ धीर मोमाया (Dheer Momaya) का सांझा निर्देशन है |
लेखक - Dar Gai |
संगीत - विविएन्ने मोर्ट ( Vivienne Mort ) |
फिल्म की सिनेमेटोग्राफी कमाल की है द्रश्यों में हमें बांधे रखती है , आर्ट डायरेक्शन का महत्वपूर्ण योगदान है पूरी फिल्म में- क्युकी एक ही बिल्डिंग को तीन अलग –अलग समय और वहाँ रहने वालों के हिसाब से बखूबी ढाला गया है | विविएन्ने मोर्ट (Vivienne Mort )का संगीत बर्फीली पहाड़ी पर हल्के से पसरती हुयी धूप है !! जो आपको अपने आगोश में ले लेती है .....सुनते समय हम उसकी भाषा ,पर सवाल नहीं उठाते केवल आनंद लेते है
फिल्म की निर्देशिका Dar Gai (Daria Gaikolova ) युक्रेन से है जो दस वर्ष की उम्र से वहाँ के थियेटर ग्रुप Incunabula का हिस्सा रही है साथ ही कई अन्य नामी थियेटर ग्रुप के साथ जुड़कर उन्होंने अभिनय किया है ,वे भारत में भी कई वर्षों से लेखन व निर्देशन से जुड़े कार्य कर रही है | तीन और आधा उनकी पहली नरेटिव फिल्म है जो पैंतीस अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में गयी है और 12 अवार्ड्स प्राप्त किये है | "नामदेव भाऊ" इनकी अगली फिल्म है |
सबसे आखिर में इस फिल्म के मुख्य अभिनेताओं की बात करते हुए – अपने पात्रों के लिए सटीक अभिनेताओं को चुनने पर मैं बधाई देना चाहूंगी कास्टिंग डायरेक्टर्स व डायरेक्टर्स को ! हर पात्र ने अभिनय की परिपूर्णता के साथ अपने - अपने किरदारों को जिया है | सभी अपनी जगह बेजोड़ है !
प्रियंका वाघेला
10\05\2019
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