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फिल्म समीक्षा – फोटोग्राफ

FILM REVIEW - PHOTOGRAPH
फिल्म समीक्षा – फोटोग्राफ
“सालों बाद जब आप ये फोटो देखेंगी तो आपको आपके चेहरे पर यही धूप दिखाई देगी” !! आपके बालों में ये हवा, आस – पास हजारों लोगो की आवाज़े ...सब चला जायेगा ...हमेशा के लिए सब चला जायेगा .............
फोटो खींचते रफ़ी (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ) की ये बातें कुछ अलग है ! कुछ है – जो रुकनें को मजबूर सा करता है और मिलोनी ( सान्या मल्होत्रा ) फ़ोटो खिचवा लेती है | मिलोनी को फोटो देखकर लगता है वह उसमें ज्यादा खुश लग रही है और सुन्दर भी !
मिलोनी मुंबई के मध्यमवर्गीय गुजराती परिवार से है और सी .ए .की तैय्यारी कर रही है | टॉपर स्टूडेंट है | रफ़ी यू . पी . से आया हुआ स्लम जैसी जगह में रहने वाला साधारण मुस्लिम फोटोग्राफ़र है जो गेटवे ऑफ़ इंडिया में फोटो खींचता है | दोनों में कोई समानता नहीं है ना धर्म की, ना वर्ग की, ना ही रंग - रूप की .......फिर भी धीरे – धीरे मिलोनी, रफ़ी और उसकी दादी के करीब होती जाती है और उनके साथ खुश दिखाई देती है ! वही दादी जो लम्बे समय से रफ़ी पर निकाह करने के लिए दबाव बना रही थी ...रफ़ी के एक झूठ के कारण मिलोनी को अपनी होने वाली बहू मान लेती है, और एक प्लेट में रसगुल्ला – गुलाबजामुन जैसी इस जोड़ी को करीब ले आती है |
फिल्म देखते समय आप इस जोड़ी को स्वीकार नहीं कर पाएंगे जिसे फिल्म के दौरान भी कई द्रश्यों में बेमेल बताया गया है ! ऐसा लगता है जैसे डायरेक्टर ने इरादतन, कहानी में इस बेमेल सी लगने वाली जोड़ी के बीच भावनात्मक समानताओं के आधार पर बहोत धीरे से पनपे रिश्ते को संभव होते दिखाया है | फिल्म आधी होने तक भी कई बार ऐसा लगता है कि दोनों अपने – अपने रास्ते चले जायेंगे, लेकिन कभी – कभी कुछ मोड़ हमें वापस उसी जगह पे ले आते है जहाँ हमारा होना नामुमकिन सा होता है .... खासकर जब एहसास जुड़नें लगते है ! हाँलाकि डायरेक्टर ने फिल्म के अंत को किसी निर्णायक स्थिति में ना लाते हुए दर्शकों पे छोड़ दिया है क्योंकि इस कहानी में अंत से ज्यादा महत्वपूर्ण है प्रेम का घटना ! असम्भव का संभव हो पाना |
अभिनय की बात करें तो नवाज़ नें अपने गहरे सधे हुए भावों के साथ रफ़ी के किरदार को बखूबी निभाया है ,उनके भाव प्रशंसात्मक आनंद दे जाते है !सान्या मल्होत्रा ने मिलोनी को जीवंत कर दिखाया है | रफ़ी के साथ रहने वाले दोस्तों में आकाश सिन्हा व सहर्ष कुमार शुक्ला है - जो एफ़ .टी. आई. आई. फिल्म स्कूल से है इनका अभिनय और संवाद अदायगी अच्छी लगी – एक समय था जब नवाज़ खुद ऐसे या इससे भी छोटे रोल में चंद लम्हों के लिए ही स्क्रीन पर दिखाई दिया करते थे लेकिन उनकी अदाकारी के कमाल ने लोगो का ध्यान खींचा और आज वे कहाँ है दुनिया जानती है | लेकिन मुझे इस फिल्म में जिन्होंने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है वो है – रफ़ी की दादी ! इतनी खूबसूरत अदाकारी और सीधे दिल से निकलते जज़्बात, लग रहा था जैसे डायरेक्टर नें उनके ऊपर ही छोड़ दिया हो कि जो आपको सही लगे वो करिए, दादी का मौके के हिसाब से संवाद सटीक था, लगा ही नहीं की अभिनय कर रहीं हो !! नवाज़ और दादी का बस में बातचीत का द्रश्य मुझे सबसे ज्यादा अच्छा लगा |
रितेश बत्रा की फिल्म से स्क्रिप्ट में कुछ और कसावट की उम्मीद थी ....शुरुवात के कुछ द्रश्य जिसमें सब दादी के दवा न लेने के बारे में पूछ रहे है कमज़ोर और बेतुके से लगे | जहाँ द्रश्य में एक्टर अच्छे है वहाँ तो फिल्म बांधती है लेकिन कुछ संवाद और परिस्थितियां नकली लगे | लंचबॉक्स जैसी अद्भुत फिल्म के डायरेक्टर से उम्मीद भी तो और बेहतर की ही होगी ....फिर भी फिल्म एकबार देखने जैसी है |
फिल्म के बैकग्राउंड में एक मधुर धुन चलती रहती है जो एक पुरानी महान फिल्म द पोस्टमैन के धुन की याद दिलाती है !
डायरेक्टर – रितेश बत्रा .
अभिनय – नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, सान्या मल्होत्रा, आकाश सिन्हा, सचिन खेडेकर |
-प्रियंका वाघेला
22\05\2019
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